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पांचवां अध्याय
[ १६३ } व्यजनावग्रह, बारह प्रकार के पदार्थों का चार इन्द्रियों द्वारा होता है अतएव उसके अड़तालीस होते हैं । इन अड़तालीस भेदों को पूर्वोक्त दो सौ अट्टासी भेदों में सम्मिलित कर देने से कुल तीन सौ छत्तीस (३३६) भेद मतिज्ञान के निष्पन्न होने हैं।
औत्पातिकी बुद्धि, वैनयिकी वुद्धि, कर्मज़ा बुद्धि और पारिणामिकी बुद्धि भी मतिमान रूप ही हैं। इन्हें उतभेदों में शामिल करने से तीन सौ चालीस भेद होते हैं । इन चारों वुद्धियों का स्वरूप और उनके उदाहरण अन्यत्र देखने चाहिए । प्रन्थविस्तार के भय से उनका यहां विवेचन नहीं किया जाता।
__यहां यह बता देना श्रावश्यक है कि श्रोत्रेन्द्रिय बारह योजन दूर से आये हुए शब्द को और स्पर्शन, रसना तथा प्राण इन्द्रियां नव योजन दुर से आये हुए प्राप्त अर्थ को ग्रहण कर सकती हैं । इससे अधिक दूरी से आये हुएं विषय को ये इन्द्रियां ग्रहण नहीं कर सकती, क्योंकि अधिक दूरी के कारण द्रव्यों का परिणमन मन्द हो जाता है और इन्द्रियों में उन्हें ग्रहण करने की शक्ति नहीं होती। चक्षु-इन्द्रियः एक लाख योजन दूर तक के रूप को देख सकती है। आधुनिक वैज्ञानिकों द्वारा आविष्कृत दूरवीक्षण यन्त्र (दुरबीन ) की सहायता से जितनी दूर के पदार्थ नेत्र द्वारा देखे जाते हैं, उनसे भी अधिक दूरवती पदार्थों को देखने का सामर्थ्य नेत्रों में है, यह बात इस से स्पष्ट हो जाती है।
श्रुनयान के विस्तार की अपेक्षा अनन्त भेद है । उन सब का कथन करना संभव नहीं है। अतएव संक्षेप की अपेक्षा उसके अंग प्रविष्ट और भंग चाह्य-दो भेद बतलाये गये हैं और मध्यम विवक्षा से चौदह भेद कहे गये हैं। .. . ..
- तीर्थकर भगवान् द्वारा उपदिष्ट द्वादश अंग रूप श्रुत को अंग प्रविष्ट श्रुत कहते हैं। उसके बारह भेद इस प्रकार हैं:-(१),अाचारांग (२) सूत्रकृतांग (३) स्थानांग (४) समवायांग (५) व्याख्याप्रनप्ति (६) झातृधर्मकथांग (७) उपासकदशांग (८) मन्त. रुत्दशांग (6) अनुत्तरॊपपातिकदशांग (१०) प्रश्नव्याकरण (११) विपाक (१२) रष्टिचाद । श्रमण भगवान् महावीर के पवित्र उपदेश इस द्वादशाहो में संकलन किये गये थे। इन अंगों का अधिकांश भाग विच्छिन्न हो गया है और बारहवां रष्टिवाद पूरा का पूरा विस्मृति के उदर में समा गया। इसी पवित्र भूत को अंग प्रविष श्रुत कहते हैं। शब्दात्मक ध्रुत पौद्गलिक होने से जान रूप नहीं है किन्तु ज्ञान का कारण होने से वह श्रुतं कहलाता है। इसी प्रकार द्वादशाही के आधार से निर्मित, प्राचार्य-विरचित दशवेकालिक, उत्तराध्ययन आदि श्रुत अंग वाद्यं श्रुत कहलाता है। जो भंग थाहा ध्रुत, अंग प्रविष्ट से विरुद्ध नहीं होता वही प्रमाण होता है । अंग बाहर भुत अनेक प्रकार है। .. श्रुतमान के चौदह भेद इस प्रकार हैं--(१) अक्षरश्रुत (२) अनतरभुत (३) संक्षिश्रुत (४, असंक्षिश्रुत (५) सम्यक्श्रुत (६) मिथ्याश्रुत (७) सादिश्रुत ( अनादि श्रुत (६) सपर्यवसितश्रुत (१०) अपर्यवसितश्रुत (११) गर्मिकश्रुत : (१३) अंगप्रविष्ट