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ज्ञान-प्रकरण
(६) श्रनवस्थित- जो अवधिज्ञान कभी बढ़ जाता है, कभी घट जाता है, स्थिर - एक ही परिमाण वाला नहीं रहता वह अनवस्थित कहलाता है । जैसे- जल की लहरें तीव्र वायु के निमित्त से वृद्धि को प्राप्त होती हैं और मन्द वायु के संयोग से हानि को प्राप्त होती हैं ।
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उत्कृष्ट अवधिज्ञान परमावधि । क्षेत्र की अपेक्षा लोकं के चराचर अलोक असंख्यात खंड, काल की अपेक्षा असंख्यात उत्सर्पिणी - श्रवसर्पिणी, द्रव्य से समस्त रूपी द्रव्य और भाव से असंख्यात पर्यायें, जानता है । जघन्य अवधिज्ञान, तीन समय पर्यन्त आहार करने वाले सूक्ष्म पनक ( वनस्पति- विशेष ) जीव के जघन्य शरीर का जितना परिमाण होता है, उतने ही क्षेत्र को जानता है। इस ज्ञान के मध्यम भेद असंख्यात हैं, और उन सब का वर्णन करना शक्य नहीं है ।
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संज्ञी जीवों द्वारा मन में सोचे हुए श्रर्थ को जानने वाला ज्ञान मनःपर्याय ज्ञान कहलाता है | यह ज्ञान मनुष्य क्षेत्र प्रमाण विषय वाला है । गुणप्रत्यय है | विविध ऋद्धियों के धारक, वर्धमान चारित्र वाले, अप्रमत्त संयमी मुनिराजों को ही इसकी प्राप्ति होती है ।
मनुष्य क्षेत्र में संज्ञी जीवों द्वारा काय योग से ग्रहण करके मनोयोग रूप परिगत किये हुए मनोद्रव्यों को मनः पर्याय ज्ञानी जानता है । भाव से द्रव्य मन की
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तक भाव
समस्त पर्याय-राशि के अनन्तवे भाग रूपादि अनन्त पर्यायें जो चिन्तनानुगत हैं, उन्हें जानता ... 1 काल से प्रत्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण अतीत अनागत काल जानता है । भावमन की पर्यायों को मन:- पयाय ज्ञान नहीं जानता, "अरुपी है - श्रमूर्त्त है और अमूर्त पदार्थ को छद्मस्थ नहीं जान सकता ! साथ ही चिन्तनीय घट यादि पदार्थों को भी साक्षात् नहीं जानता है, किन्तु अनुमान से जानता है । मन की पर्याय अथवा आकृतियों से वाह्य पदार्थ का अनुमान होता है ।
क्योंकि
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मनः पर्याय ज्ञान दो प्रकार का होता - ऋजुमति और विपुलमति मनः, पर्याय । ऋजुमति केवलज्ञान की उत्पत्ति से पहले भी नष्ट हो जाता है और कम विशुद्धि वाला होता है । विपुलमति श्रप्रतिपाती होता - केवलज्ञान की उत्पत्ति पर्यन्त स्थिर रहता है और अधिक विशुद्ध भी होता है ।
जैसे अन्य ज्ञानों से पहले सामान्य को विषय करने वाला दर्शन होता है, वैसे मनःपर्याय से पूर्व दर्शन नहीं होता ।
- त्रिलोक और त्रिकालवतों समस्त द्रव्यों और पर्यायों को, युगपत् प्रत्यक्ष जानने वाला ज्ञान केवलज्ञान कहलाता है । केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर श्रात्मा सर्वज हो जाता । जगत का सूक्ष्म या स्थूल कोई भी भाव केवलज्ञानी से श्रज्ञात नहीं रहता । जैसे क्षायोपशमिक मति, श्रुत आदि ज्ञानों के अनेक विकल्प, क्षयोपशम के तारतम्य के अनुसार होते हैं, वैसे कोई भी मेद केवलज्ञान में संभव नहीं हैं। क्योंकि यह जान चायक हैं और क्षय में तरतमता नहीं हो सकती । यद्यपि नंदी आदि सूत्रों में केवल
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