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....................मान-प्रकरणं
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विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता।
मिथ्याज्ञानात् प्रवृत्तस्य, फलाऽसंवाददर्शनात् ॥ . अर्थात् जान ही फलदायक है, क्रिया फलदायक नहीं है । क्रिया फलदायक होती तो मिथ्याशानी की क्रिया भी फलदायक होती। .. ... इसके विरुद्ध क्रियावादी कहते हैं कि क्रिया ही फलदायक होती है, ज्ञान नहीं । यथा-
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. .. क्रियैव फलदा पुंसां न, जानं फलदं मतम् । ....
यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात् सुखितो भवेत्॥........ शास्त्राण्यधीत्यापि भवन्ति मूर्खाः; यस्तु क्रियावान् पुरुपः स विद्वान् । . . . संचिन्त्यतामौषधमातुरं हि, न जानमात्रेणं करोत्यरोगम् ॥ .. .......
अर्थात् क्रिया ही पुरुषों को फल देती है; जान फलप्रद नहीं होता, क्योंकि स्त्री, __ भोजन और भोगोपभोगों को जान लेने वाला पुरुष, जान लेने से ही सुखी नहीं हो जाता।
. शास्त्रों का अध्ययन करने वाले भी मूर्ख होते हैं । सच्चा विद्वान् तो क्रियावान् ही होता है । अच्छी तरह विचार कीजिए, क्या औषधि को जान लेने मात्र से वह रोगी को नीरोगं कर देती है ? नहीं कर देती; तो ज्ञान किस काम का है ? - यह दोनों एकान्तवादियों का अभिप्राय है । एक क्रिया को अनावश्यक ठहराता है, दूसरा ज्ञान को अनुपयोगी कह कर उसकी भर्त्सना करता है। वस्तुतः दोनों एक .. दूसरे के मत-पर प्रहार करके दोनों मतों को असंगत ठहराते हैं। ...
.. क्या मुक्ति की प्राप्ति और क्या अन्य सांसारिक कार्यों में सफलता की प्राप्ति सर्वत्र ही जीन और क्रिया-चारित्र की आवश्यकता होती है। जानहीन क्रिया और क्रिया शून्य ज्ञान से कहीं भी फल की प्राप्ति नहीं होती। किन्तु ज्ञान के द्वारा जानकर तदनुकूल श्राचरण करने से ही कार्य-सिद्धि होती हैं। कहा भी है-...'
.. हयं नाण कियाहीणं, हया अन्नाणो किया।
.पासंतों पंगुलो दड्ढो, धावमाणो अंधओं ॥ अर्थात-नगर में आग लगने पर पंगु पुरुपं आग को देखता हुश्रा भी जल मरता है और अंधा प्रादमी भागता हुश्रा भी ( आग की और दौड़कर) जल जाता है. दोनों में से कोई भी वचने में समर्थ नहीं होता । इसी प्रकार किया.हीन ज्ञान और जान हीन क्रिया भी निष्फल होती है।
. यदि अंधा और पंगु पुरुष दोनों मिल जावे-अंधा, पंगु को अपने कंधे पर विठाले और पंगु; अंधे को ठीक दिशा बताता चले तो दोनों विपदा से बच सकते हैं। इसी प्रकार जान और चारित्र दोनों जब मिल जाते हैं तो मनुष्य दुःख से वचकर सिद्धि प्राप्त कर सकता है । अज्ञानी पुरुष, सुन के लिए प्रयत्न करता हैं किन्तु सुत्र के स्वरूप का और सुख के मार्ग का यथावत जान न होने के कारण वह ऐसा प्रयत्न .
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