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पांचवां अध्याय
। २०३ सव्वसत्तेहिं पच्चक्खायमिति वदमाणे लो सच्चं भासं भासद, मो मासं भासाइ । एवं स्खलु से मुसाबाई सव्वपापहि जाव सधसत्तेहिं तिविहं तिविहेवं असंजयविरयपड़िहय पञ्चक्खायपावकम्मे सकिरिए, असंवुडे, एरंतदंडे, एगंतवाले यावि भवति ।"
. अर्थात् 'हे गौतम ! सच प्राणों में यावत् सब सरवों में प्रत्याख्यान किया है। ऐसा बोलने वाले को अगर यह जान्न नहीं होता कि-यह जीव हैं, यह अजीव हैं, यह त्रस है, यह स्थावर हैं तो उसका प्रत्याख्यान, सुप्रत्याख्यान नहीं होता, दुष्प्रत्याख्यान होता है । इस प्रकार वह दुष्प्रत्याख्यानी 'स्व प्राणों में यावत सर सत्वों में प्रत्याख्यान किया है' ऐसा बोलने वाला सत्य भाषा नहीं बोलता, मिथ्या भाषा बोलता है। इस प्रकार वह मृषावादी, सद प्राणों में यावत् सब सत्वों में तीन करण तीन योग से असंपत, विरतिरहित, पाप कर्म का त्याग न करने वाला, क्रियासहित-कर्म दंघ युस्त संवररहित, एकान्त हिंसा करने वाला और एकान्त अक्ष होता है।
-भगवती सूत्र, श०७७०२ श्री भगवती सूत्र के कथन के अनुसार भी यही सिद्ध होता है कि जब तक जीव-अजीव श्रादि तत्वों का यथार्थ ज्ञान नहीं होता तब तक संयम की स्थिति नहीं होती। यही नहीं, अजानी यदि संयम पालने का दावा करता है तो वह मिथ्याभाषी है, संयमहीन है, एकान्त हिंसक है और पकान्त बाल है।
जिस रोगी को या चिकित्सक को रोग का स्वरूप नहीं मालूम है, उसके निदान का पता नहीं है, रोगी की प्रकृति (स्वभाव ) का भान नहीं है, और रोग को उपशांत करने के उपायों का ज्ञान नहीं है, वह रोग को दूर नहीं कर सकता। इसी प्रकार भवरोग का स्वरूप, भव-रोग का निदान, भव-रोग से मुक्त होने के उपाय, को जो सम्यक प्रकार से नहीं समझता है वह संसार की बीमारी से छूटकर आध्यात्मिक स्वस्थता नहीं प्राप्त कर सकता। कहा भी है
श्रात्माजानभवं दुःखं, प्रात्मशानेन हन्यते ।
तपसाऽप्यात्मरिशानहीनेश्छेनुं न शक्यते ॥ आत्मा के यथार्थ स्वरूप को न जानने से जो दुल उत्पन्न हुआ है वह आत्म-झान से ही विनए किया जा सकता है। श्वात्मा के शान से रहित पुरुष तपस्या के द्वारा भी दुःख का विनाश नहीं कर सकते हैं। क्योंकि श्रात्म-ज्ञानहीन तए का फल अल्प होता है। कहा भी है
जनतासी कम्म खरेइ कटुश्राहि वासकोडीहि ।
तं नाखी तिहि गुत्तो, खवह उसासमेत्तेग . प्रर्धाद नशानी जीव करोड़ों वर्षों में जितने कर्म नपाला है, इतने कर्म मन वचन काय से संवृत्त मानीजन एक उच्दास जितने समय में ही मर डालता है।।
'अतएव श्रात्मकत्याण की कामना करने वाले भव्य जीवों को प्रथम प्रान कीयोजनभूत यात्मशान की--परराधना करनी चाहिए। यह मान ही संयमरूपी वृध