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चतुर्थ अध्याय अवलम्बन करना निरर्थक ही हो जायगा । जव स्नान करने से ही आत्मा शुद्ध हो.. जाता है, तब तपस्या के.झगड़े में पड़कर कष्ट सहन करने की क्या आवश्यकता है? अतएव यह स्पष्ट है कि शारीरिक स्नान से पात्मिक शुद्धि नहीं होती।
स्नान से श्रात्म-शुद्धि नहीं होती, इतना ही नहीं, किन्तु स्नान से प्रात्मा अशुद्ध होता है । जल, जीवों का शरीर है। जल के एक बिन्दु में असंख्यात जीव होते हैं। माइक्रोफोन यन्त्र के द्वारा छत्तीस हजार जीव चलते-फिरते तो कोई भी देख सकता है। जल के ये छोटे-छोटे जीव अत्यन्त हल्के-से प्राघात से ही मर जाते हैं। जब स्नान किया जाता है तो जल के अनगिनते विन्दु व्यय किये जाते हैं। इसमें कितने जीवों की हिंसा होती है, यह कल्पना सहज ही की जा सकती है । इस हिंसा के पाप से आत्मा मलीन होता है। अतएव जल-स्नान से आत्मिक शुद्धि नहीं किन्तु अशुद्धि ही होती है । इसलिए आत्म-शुद्धि के उद्देश्य से स्नान करना मिथ्यात्व है। . . जल में समाधि लेना तो स्पष्ट ही आत्मघात है। उसके सम्बन्ध में यहां अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। मृत पुरुष की अस्थियां गंगा आदि जलाशयों में डालने से मृत पुरुष की प्रात्माशुद्ध हो जाती है, यह समझना अज्ञानता का अतिरेक है। सद्गति और दुर्गति उपार्जित किये हुए शुभ या अशुभ अष्ट पर अवलस्वित. है । जिसने शुभ अदृष्ट का अर्जन किया है उसे सद्गति मिलेगी ही, चाहे उसका शरीर या अस्थियां कहीं भी मौजूद रहे। इसके विपरीत जिसने अशुभ अदृष्ट का उपाजन किया है वह दुर्गति का अतिथि बनेगा ही, फिर भले उसकी अस्थियां किसी भी पवित्र जलाशय में क्यों न डाली जाएँ। अगर ऐसा नहीं है तो किये हुए शुभ-अशुभ, कर्म निष्फल हो जाएँगे और प्राचार-प्रतिपादक ग्रन्थ-राशि की कुछ भी आवश्यकता नहीं रह जायगी।
- जलाशय में अस्थियां डालने से जीवों का घात होता है । अस्थियों में एक प्रकार का क्षार होता है और वह जलचर उस जीवों के तथा जलकायिक स्थावर जीवों के लिए शख रूप परिणत होता है। अतएव जलाशय में जितनी दूर तक अस्थियों का असर फैलता है, उतनी दूर तक के अवेक स्थावर और जंगम जीवों की हिंसा होती है। इसी प्रकार चिता की भस्म जलाशय में डालने प्रचुर हिंसा होती है। श्रतएव विवेकशील व्यक्तियों को निरर्थक हिंसा से अवश्य बचना चाहिए और साथ . ही मिथ्यात्व-पोषक लोकाचारों से भी दूर ही रहना चाहिए ।
यह जल स्नान प्रात्म-शुद्धिजनक नहीं है, तो किस प्रकार के स्नान से शात्मा शुद्ध हो सकता है ? इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए खुधकार कहते है जिसमें मिथ्यात्व, अविरति आदि का कीचड़ नहीं है, जो भात्मा के लिए प्रशंसनीय एवं उच्च भावनाओं को प्रकट करने में सहायभूत हैं, ऐसे धर्म रूपी सरोवर में श्रात्मा को स्नान करना चाहिए । इस सरोवर में स्नान करने से आत्मा विमल अर्थात् द्रव्यमल से रहित तथा विशुद्ध अर्थात् भावमल से रहित हो जाता है । आत्मा के समस्त . संतापों का अभाव होने से वह शीतल हो जाता है और सय दोषों का अन्त हो जाता