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चतुर्थ अध्याय
ध्यानाग्नौ जीवकुण्डस्थे; दुममारुतदीपिते । .. . . . : ... असत्कर्मसमिक्षेपैराग्रिहोत्री कुरुत्तमम् ॥
कषायपशुभिर्दुधर्मकामार्थनाशकैः।:. ... ... .. शममन्त्रहुतैर्यशं, विधेहि विहितं बुधैः॥
प्राणिघातात्तु या धर्ममर्माहते मूढमानसः।
स वाच्छति सुधावृष्टिं कृष्णाहिमुखकोटरात् ॥ ." ... अर्थात्-ध्यान को अग्नि बनायो । जीव को अग्नि का कुंड बनायो । इन्द्रियदमन रूपी वायु से अग्नि को प्रदीप्त करो। फिर उसमें असत् कर्म रूपी समिधा डालकर श्रेष्ठ अग्निहोत्र ( होम ) करो।
कषाय रूपी पशु अत्यन्त दुष्ट हैं। वे धर्म, अर्थ और काम के वाधक हैं। अतएव शान्ति रूपी मंत्रों का पाठ करके उन्हें आग में-तप की भाग में-भस्म करो। विद्वानों के द्वारा इसी यज्ञ का विधान किया गया है । तात्पर्य यह है कि पशुओं को अग्नि में जलाना रूप यज्ञ वुद्धिमानों द्वारा विहित नहीं है। ... ....
'महर्षि व्यास, इतने से ही सन्तुष्ट न हो कर आगे स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि पशु आदि प्राणियों की हिंसा करके जो सूढ़-मानस वाले मनुष्य धर्म की (पुण्य की) कामना करते हैं वे काले सांप के मुख से अमृत की वर्षा होने की कामना करते हैं। जैसे कृष्ण सर्प के मुख से अमृत नहीं निकल सकता, वरन् विप ही निकलता है, उसी प्रकार प्राणियों के घात से धर्म नहीं हो सकता बल्कि अधर्म ही होता है। • यज्ञ-याग आदि क्रियाकांड के विषय में निर्ग्रन्थों का जो अभिप्राय है वह इस एक ही गाथा से स्पष्ट समझा जा सकता है। इससे जैन धर्म और वैदिक धर्म के क्रियाकांड विषयक मौलिक अन्तर की भी कल्पना-श्रा सकती है। . :: .. ...
जो मुमुक्षु इस प्रकार का यज्ञ प्रतिदिन करते हैं, तपस्या.के द्वारा कपायों को भस्म करते हैं या पाप कर्मों का होम करते हैं, वही श्रात्मा को सर्वथा विशुद्ध बनाकर . परम पद के अधिकारी बनते हैं।
यहां अहिंसा के उपदेशक के रूप में भगवान् महावीर का कथन इसलिए किया गया है कि वर्तमान में उन्हीं का शासन प्रचलित है और अब तक के काल में वही अंतिम तीर्थकर हुए हैं। इससे यह नहीं समझना चाहिए कि अन्य तीर्थकर अहिंसा का प्रतिपादन नहीं करते। पहले बतलाया जा चुका है कि समस्त तीर्थकरों का. उपदेश समान ही होता है। दो सर्वज्ञ एक विषय में परस्पर विरोधी कथन नहीं करते। मूलः--धम्मे हरए वंभे सतितित्थे,
प्रणाविले अत्तपसनलेसे। - जहिं सिणाम्रो विमलो विशुद्धो, .....
. . सुसीतिभूतो पजहामि दोसम् ॥ २४ ॥