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ज्ञान-प्रकरण इस कथन से यह स्पष्ट हो गया कि प्रत्येक आत्मा में ज्ञान समान रूप से अन- . . . न्त है, किन्तु जीवों में जो ज्ञान संबंधी तारतम्य दृष्टिगोचर होता है उसका कारण ज्ञानावरण कर्म है। ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के कारण ही ज्ञान की अनेक अवस्थाएँ होती हैं। यह सब अवस्थाएँ अनन्तानन्त हैं, फिर भी सुविधा पूर्वक समझने के लिए उन अवस्थाओं का वर्गीकरण करने पर मूल पांच वर्ग वनते हैं.। इन्हीं पांच वर्गों का यहां सूत्रकार ने उल्लेख किया है। (१) श्रुतज्ञान (२) श्राभिनिबोधिकज्ञान (३) अवधिज्ञान (8) मनःपर्यायज्ञान और. (५) केवल जान, ये जान के पांच भेद हैं। . .
यद्यपि यहां श्रुतनान का प्रथम और श्राभिनियोधिक अर्थात् मतिजान का तदनन्तर कथन किया है, किन्तु नन्दी प्रादि सूत्रों में मतिज्ञान का उल्लेख सर्वप्रथम किया गया है। यहां श्रुतजान को प्रधान मान कर आदि में उसका उल्लेख किया है, जब कि नन्दी अादि सूत्र-ग्रंथों में अन्य अपेक्षा से मतिज्ञान का आदि में उल्लेख पाया जाता है। चाहे मंतिज्ञान का श्रादि में उल्लेख किया जाय, चाहे श्रुतज्ञान का, किन्तु दोनों का उल्लेख, एक साथ ही सब स्थानों पर किया गया है । इसका कारण यह है कि मतिनान और श्रृंतनान के स्वामी एक ही है । जिस जीव को मतिजान होता है उले थुतजान अवश्य होता है और जिले श्रुतज्ञान होता है उले. मतिजान अवश्य होता है । इसके अतिरिक्त अनेक जीवों की अपेक्षा और एक जीव की-अपेक्षा दोनों की स्थिति भी समान है । अनेक जीवों की अपेक्षा मति ज्ञान और श्रुतजान-दोनों सर्वकाल रहते हैं और एक जीव की अपेक्षा छयासठ सागरोपम काल पर्यन्त दोनों जान निरन्तर होते हैं। इन दोनों ज्ञानों के इन्द्रिय और मन रूप कारण भी समान हैअर्थात् दोनों ही शान इन्द्रिय और मन की सहायता से उत्पन्न होते हैं । सभी द्रव्यों को मतिज्ञान और श्रुतज्ञान-दोनों जान सकते हैं, श्रतएव दोनों में विषय की समानता भी है। मतिज्ञान भी परोक्ष हैं और श्रुतज्ञान भी.परोक्ष है । इस प्रकार परोक्षता की समानता भी दोनों में पाई जाती है । इस कारण सर्वत्र दोनों ज्ञानों का एक साथ उल्लेख पाया जाता है। ... ... . . . . . . . . . . . . . ..
...दोनों का एक साथ उल्लेख होने पर भी इन्हें श्रादि में कहने का क्या कारण है? इस प्रश्न का समाधान यह है कि माते-श्रुतं ज्ञान के होने पर ही अवधि आदि जानो. की प्राप्ति हो सकती है। इन दोनों ज्ञानों के अभाव में अवधि जान-श्रादि की प्राप्ति . नहीं हो सकती । अतएव दोनों जानों को आदि में कहा है। इन दोनों में भी प्रायः मतिज्ञान का आदि में और श्रुतशान का बाद में उल्लेख किया जाता है सो उत्पत्ति की अपेक्षा समझना चाहिए । अर्थात् पहले मति-झान की उत्पत्ति होती है और फिर श्रुतझान उत्पन्न होता है । इसके अतिरिक्त श्रुतज्ञान को एक प्रकार से मतिज्ञान का । ही भेद स्वीकार किया गया है. इसलिए भी मंतिज्ञान का पूर्व-निर्देश पाया जाता है..
मंतिज्ञान और श्रुतज्ञान के पश्चात् ही अवधिज्ञान का उल्लेख किया गया है। उसका कारण यह है कि अवधिज्ञान काल, विपर्यय; स्वामित्व और लाभ की दृष्टि से इन दोनों कानों से मिलता-जुलता है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का जो स्थितिकाल