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. * ॐ नमः सिद्धेभ्य * नित्य वचन .. ॥ तृतीय अध्याय ॥
धर्म स्वरूप वर्णन
श्री भगवानुवाचमूलः-कम्माणं तु पहाणाए, प्राणुपुवी कयाइ उ ।
जीवा सोहिमणुपत्ता, बाययंति मणुस्सयं ॥ १ ॥
छायाः कर्मणां तु प्रहाण्या, भानुपूर्त्या कदापि तु ।
___जीवाः शुद्धि मनु प्राप्ताः, श्राददते मनुष्यताम् ॥ १॥ .. शब्दार्थः-हे इन्द्रभूति ! अनुक्रम से कर्मों की हानि होने पर जीवं कभी शुद्धता प्राप्त कर मनुष्यता प्राप्त करते हैं। .:. .
भाष्यः-द्वितीय अध्ययन में कर्मों के स्वरूप का निरूपण किया गया है और यह भी स्पष्ट किया गया है कि कर्मों के प्रभाव से जीव नाना प्रकार के रागादि रूप विभाव परिणामों से युक्त होता है। किन्तु जीव सदा कर्मों के ही अधीन नहीं रहता। है। जीव में भी अनन्त शक्ति है अतएव जब क्रम से धीरे-धीरे कर्मों की न्यूनता होती है अर्थात् उनकी शक्ति घट जाती है तब जीव में शुद्धता की वृद्धि होती है और शुद्धता बढ़ जाने पर उसे मनुष्य भव की प्राप्ति होती है। ... · संसार में हम अनेक जीव-योनियां प्रत्यक्ष देखते हैं। लाखो प्रकार की वनस्पति रूप योनि, लाखों कीट-पतंग, लट, कीड़े-मकोड़े श्रादि-श्रादि की योनियां हैं। फिर उनसे कुछ चढ़ते हुए गाय, भैंस, हिरन, बकरा, मेढ़ा, घोड़ा, गधा, खच्चर, सिंह, व्याघ्र, शृगाल आदि चौपाये और कौवा, कबूतर, तोता, मैना, तीतर, मुर्गा, हंस आदि-श्रादि पक्षी जगत् में असंख्य प्रतीत होते हैं । यह सब जीव-योनियां ऐसी
जिन्हें हम अनुभव कर सकते हैं। पर अत्यन्त सूक्ष्म जीव भी असंख्य योनियों में, संसार में भरे हुए हैं। इन समस्त योनियों में संसार का. प्रत्येक जीव जाता है। आज हमारी आत्मा मनुष्य योनि में है, पर इससे यह नहीं समझना चाहिए कि वह सदा ही मनष्य योनि में रही है या रहेगी। नहीं, यह श्रात्मा संसार की समस्त योनियों में अनन्त वार जन्म ग्रहण कर चुका है। अब भी वह कमों की प्रबलता होने पर उन योनियों में जा सकता है । इस प्रकार विचार करने से मालूम होता हैं कि संसार की इन असंख्य योनियों से बच कर, सर्वश्रेष्ट मनुष्य योनि का मिल जाना कितना बड़ा सयोग है ! कितनी अधिक सौभाग्य की निशानी है !