________________
। १४४ . ]
ध- स्वरूप वर्णन वह व्यक्ति और वह समाज कभी स्थायी शान्ति और सुख का भोग नहीं कर सकता। इन तीनों में सर्व प्रथम अहिंसा को स्थान दिया गया है, क्योंकि अहिंसा इनमें प्रधान है। अहिंसा प्रधान. इस कारण है कि वह साध्य है और संयम तथा तप: अहिंसा के साधन हैं। - प्रत्येक मत में अहिंसा को धर्म स्वीकार किया गया है। जिन मतों में यक्ष-त्याग . तथा अन्य प्रकार के बलिदान के रूप में हिंसा का विधान है, वह मन भी उस हिसा को अहिंसा समझ करके ही धर्म स्वीकार करते हैं। हिंसा को धर्म मानने का अभिप्राय किसी ने भी प्रकट नहीं किया है । अतएव यह कहना भ्रमपूर्ण नहीं है कि अहिंसा की व्याख्या, अहिंसा की मर्यादा और अहिंसा संबंधी समझ, भले ही विभिन्न मतो विभिन्न प्रकार की हो, परन्तु 'अहिंसा धर्म है' इस सिद्धान्त में किसी को विवाद . नहीं है।.
. .. अहिंसा को सब धर्मों मतों और पंथों में जो सम्माननीय स्थान प्राप्त है सो निष्कारण नहीं है अहिंसा के बल पर ही जगत् के प्राणियों की स्थिति है। एक.व्यक्ति, यदि दूसरे व्यक्ति की हिंसा पर उतारू हो जाय, एक जाति दूसरी जाति का संहार करने में तत्परं बन जाय और एक देश दूसरे देश की हत्या करने पर कमर कस ले तो संसार की क्या दशा होगी? यह कल्पना करना भी कठिन हो जाता है । अतएव अहिंसा वास्तव में जीवन है और हिंसा मृत्यु हैं । जगत् यदि जीवित रहना चाहे तो उसे अहिंसा का अवलम्बन लेना ही होगा । अहिंसा के बिना जगत् घोर कत्लखाना बन . जायगा । यही कारण है कि अहिंसा प्रत्येक प्राणी के अन्तःकरण में निवास करती है। परम्परागत संस्कार या वातावरणजन्य प्रभाव के कारण अहिंसा भले. ही न्यूनाधिक . रूप में पाई जाय, पर जन्म से हिंसक समझे जाने वाले पशुओं पर भी उसका प्रभाव .. स्पष्ट देखा जाता है। सिंह कितना ही क्रुर क्यों न हो, पर अपने बाल बच्चों के प्रति उसके हृदय में भी हिंसा की भावना नहीं होती । उतने अंशों में वह भी अहिंसक रहता ही है। इससे यह भली भांति सिद्ध हो जाता है कि अहिंसा प्राणी का स्वाभा.. विक धर्म है और वह धर्म वातावरण या संस्कारों के कारण कुछ अंशों में छिप जाने' . पर भी इसका सर्वथा लोप कदापि नहीं होता । यही कारण है कि प्रत्येक धर्म में । उसे आदरणीय स्थान प्राप्त हुआ है। .
अात्मिक बल की वृद्धि के अनुपात से जीवन में अहिंसा का विकास होता है। जिस व्यक्ति की आत्मिक शक्ति जितनी अधिक विकसित होती जाती है वह उतनी ही मात्रा में अधिक-अधिक अहिंसा का आचरण करता चला जाता है । जिसमें श्रामिक वल नहीं है वह . अहिंसा की प्रतिष्ठा अपने जीवन में नहीं कर सकता। तात्पर्य यह है कि बलवान पुरुष ही अहिंसक हो सकता है । अतएव कतिपय लोगों की यह धारणा सर्वथा मिथ्या है कि अहिंसा कायरता रूप है। भारतीय इतिहास के . .. अवलोकन से प्रतीत होता है कि जब तक भारतवर्ष में, अहिंसा का आचरण करने वाले राजाओं का राज्य था तबतक किसी विदेशी राजा ने पाकर भारत को पराधीन