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धर्म स्वरूप वर्णन श्रानव रहित (६ स्व-पर के श्रायास से रहित (७) और जीवों को भय उत्पन्न न हो, इस प्रकार मन की प्रवृत्ति करना प्रशस्त मनविनय है। इससे विपरित पाप: युक्त विचार करना, क्रोध श्रादि रूप मन को प्रवृत्त करना, आदि लात प्रकार का अप्रशस्त भनविनय है।
वचन-योग की शुभ और अशुभ. की प्रवृत्ति के कारण वचन-विनय भी प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है। मनविनय में कहे हुए लात दोषों से युक्त वचन की प्रवृत्ति करना सात प्रकार का अप्रशस्त वचन विनय है और उन दोषों से रहित वचन बोलना सात प्रकार का प्रशस्त वचन विनय है।.
काय विनय के भी प्रशस्त-अप्रशस्त के भेद से दो भेद होते हैं । यतनापूर्वक गमन करना, यतनापूर्वक स्थित होना, यतनापूर्वक वैठना, यतना के साथ बिस्तर पर लेटना, सावधानी से उल्लंघन करना, सावधान होकर विशेष उल्लंघन करना, सावधान होकर सव इन्द्रियों की प्रवृत्ति करना, यह सात प्रकार का प्रशस्त काय विनय है। इससे विपरीत प्रवृत्ति करना सात प्रकार का अप्रशस्त कायविनय है।
सातवें लोकोपचार विनय के भी सात प्रकार हैं-१) गुरु श्रादि बड़ों के पास जाना (२) उनकी इच्छा के अनुसार प्रवृत्ति करना (३) उनका कार्य सिद्ध करने के लिए सुविधा कर देना (४) किये हुए उपकार का बदला चुकाना (५) रोगी की सारसँभाल करना (६. देश-काल के अनुसार व्यवहार करना ७) सब कार्यों में अनुकूल रूप से वर्ताव करे ऐसे कार्य करे जिससे किसी को बुरा न लगे।
भगवती सूत्र मे उल्लिखित इन भेद-प्रभेदों से यह स्पष्ट होजाता है कि विनय में नम्रता के अतिरिक्त समस्त प्रवृत्तियां-सम्पूर्ण आचार विचार अन्तर्गत है।
इस प्रकार की विनय से युक्त पुरुप विनीत कहलाता है । विनीत के पन्द्रह लक्षण बताये गये हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) निरर्थक न भटकना २) स्थिर पालन से बैठना (३) निरर्थक भाषण न करता (४) स्वभाव में स्थिरता होना (५) चिरकाल तक क्रोध न रखना ६) अपने साथियों से मिल-जुल कर रहना (७) विद्वान् होने पर भी अभिमान न करना ( स्वयंकृत अपराध स्वीकार कर लेना-दूसरों पर दोष न डालना ) साधर्मीपर कुपित न होना (१० , शत्रु के भी गुणों की प्रशंसा करना (२१) किसी की गुह्य वात प्रकट न करना (१२) मिथ्या आडम्बर न करना (१३) तत्वज्ञानी बनना १४) श्रेष्ट बनना, १५) लज्जाशील तथा जितेन्द्रिय होना।
. जो पुरुप इन विनीत के लक्षणों को धारण नहीं करता, प्रत्युत इनसे विपरीता श्रांचरण करता है वह अविनीत होता है । . . .
विनीत पुरूप को क्या फल प्राप्त होता है, यह बतलाते हुए सूत्रकार कहते हैं कि विनय से इस लोक में कीर्चि प्राप्त होती है और श्रुत की प्राप्ति होती है। अर्थात विनीत शिष्य शीघ्र ही शास्त्रों का मर्मज्ञ बन जाता है और क्रम से मुक्ति प्राप्त करता है।
निस्सेयसं' पद के स्थान पर. 'निस्सेसं पाठ भी कहीं-कहीं दृष्टिगोचर