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आत्म-शुद्धि के उपाय छाया:-अहसिद्धप्रवचनगुरुस्थविरबहुश्रुतेषु तपस्विषु। .
वत्सलता तेषां अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगश्च ॥ १२ ॥ दर्शनविनय अावश्यकं च शीलव्रतं निरतिचारम् ।
क्षणलवस्तपस्त्यागः वैयावृत्यं समाधिश्च ॥ १३ ॥
__ अपूर्वज्ञानग्रहणं श्रुतभक्तिः प्रवचनप्रभावनया। - एतैः कारणैस्तीर्थकरत्वं लभते जीवः ॥ १४ ॥ . शब्दार्थः-अरिहंत, सिद्ध, वीतरागोक्त आगम, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत तथा तपस्वी पर वात्सल्य भाव रखना-इनके गुणों का कीर्तन करना, सदा ज्ञान में उपयोग रखना। निरतिचार सम्यक्त्व का पालन करना, विनीत होना, षट् आवश्यक का पालन करना, अतिचार रहित शीलों और व्रतों का पालन करना, शुभ ध्यान ध्याना, तप करना, त्याग करना, वैयावृत्य (सेवा) करना, अविकृत चित्त रखना। नित्य नया ज्ञान ग्रहण करना, श्रुत की भक्ति करना, निग्रन्थ-प्रवचन की प्रभावना करना, इन कारणों से जीव तीर्थकरत्व प्राप्त करता है। . भाष्यः-तीर्थकर गोत्र की प्राप्ति निम्न लिखित वीस कारणों से होती है:- .
(१) अर्हन्त भगवान् का गुणानुवाद करना। (२) सिद्ध भगवान् का गुणानुवाद करना।
(३) प्रवचन अर्थात् वीतराग भगवान् द्वारा उपदिष्ट शास्त्र का गुणानुवाद करना। . . . . . . . . . . . . .
(४) पञ्च महाव्रतधारी गुरु महाराज का गुणानुवाद करना। : (५) स्थविर श्रोत् वृद्ध मुनिराज का गुणानुवाद करना। '. (६) बहुश्रुत अर्थात् शास्त्रों के विशिष्ट नाता ज्ञानी पुरुषों का गुणानुवाद करना।
(७) तपस्वी का गुणानुवाद करना। (८) बार-बार ज्ञान में उपयोग लगाना।
(8) निर्मल-निरतिचार सम्यक्त्व का पालन करना अर्थात् शुद्ध श्रद्धा में किंचित् भी दोष न लगने देना।
(१०) गुरु आदि महा पुरुषों का यथोचित विनय करना।
(११) देवसी, रायसी, पाक्षिक, चातुर्मालिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण को यथासमय भावशुद्धिपूर्वक करना तथा अन्य शास्त्रोपदिष्ट आवश्यक क्रियाओं का आचरण करना। . . . . .
(१२) शील अर्थात् ब्रह्मचर्य आदि व्रतों का तथा प्रत्याख्यानों का अतिचार न लगाते हुए पालन करना। " .. .. ... ..
(१३) निरन्तर वैराग्यमयी वृत्ति-अनासक्ति का भाव रस्वती । (१४ चारह प्रकार की तपश्चर्या करना । ... ६१५) सुपात्र को प्रीतिपूर्वक दान देना। . . . . . . :: ..."
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