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श्रात्म-शुद्धि के उपाय व्युत्सर्ग (२५) अप्रमाद (२६) लवालव (२७) ध्यान (२८) संवरयोग (२६) मरणान्तिकउदयः (३०) संगपरिज्ञातना (३१) प्रायश्चित्त और (३२) मारणान्तिक आराधना ।
भाष्यः-जिस विधि का अनुसरण करने से मन, वचन और काय अर्थात् तीन योगों का निग्रह होता है और जिसस योग की साधना सुकर बनती है, उस विधि का अनुसरण करना: योग संग्रह कहलाता है। प्रत्येक मनुष्य को और विशेषतः योगीजनों को यह विधियां अवश्यमेवं पालनीय हैं। इनसे श्राध्या सक शुद्धि होती है । बत्तीससंग्रह का स्वरूप इस प्रकार हैं:- : . . . . .
(१) पालोचना-शिष्य को जान में या अनजान में जो कोई दोष लगा हो, उसे अपने गुरु के समक्ष प्रकाशित कर देखें।
(२) निरपलाप-शिष्य द्वारा प्रकाशित दोपों को गुरुकिल्ली और से न कहे।
(३) धार्मिक दृढ़ता-घोर से घोर कष्ट प्रा पड़ने पर भी अपने धर्म में दृढ़अटल-रहना।
(४) अनिश्रित-उपधान-निष्काम तपस्या करना अर्थात् तप के फल स्वरूफ स्वर्ग के सुखों की.या इसलोक सम्बन्धी ऋद्धि, महिमा, प्रशंसा, यश-कीर्ति श्रादि की इच्छा न रखते हुए तप तपना।
(५) शिक्षा-श्रासेविनी-(ज्ञान-लाभ सम्बन्धी ) शिक्षा तथा ग्रहणी (चारित्रलाभ सम्बन्धी) शिक्षा के दाता का उपकार मानकर शिक्षा को अंगीकार करना ।
(६) निःप्रतिकर्मता-शरीर आदि को नहीं सजाना । . (७). अज्ञातता-गृहस्थ को मालूम न हो सके, इस प्रकार गुप्त रूप से तपस्या करना। . . . . . . . . . . . . . :.
(८) अलोभ-बाह्य पदार्थों का तथा कीर्ति श्रादि का लोभ न करना। (ह) तितिक्षा-परीपह और उपसर्ग सहन करना। (१०) आजैव-योग की कुटिलता का त्याग कर सरलता धारण करना । (११) शुचिता-अन्तःकरण को राग-द्वेष प्रादि से दूषित न होने देना। (१२) सम्यग्दृष्टि-शंका श्रादि दोषों से रहित सम्यक्त्व का पालन करना। (१३) समाधि-अन्तःकरण को सदा स्वस्थ और स्थिर रखना। (१४) आचार-ज्ञान आदि पांच प्राचारों की यथाशक्ति वृद्धि करना । (१५) विनय-पूर्वोक्त विनय का आचरण करना। (१६) धृति-संयमादि के अनुष्ठान में धैर्य धारण करना । (१७) मति-सदा वैराग्यमयी बुद्धि रखना। (१८) संवेग, संसार से तथा भोगोपभोगों से उदासीन रहना।
(१६) प्रणिधि-प्रात्मा के शान प्रादि गुणों को खजाने की भांति यत्नपूर्वक सुरक्षित रखना-दृषित न होने देना।
(२०) सुविधि-संयम पालन में ढील न करना-शिथिलता न आने देना । .. (२१) श्रात्म दोषोपसंहार-अपने प्रात्मा में चोर की तरह घुसे हुए दोषों को