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श्रात्म-शुद्धि के उपाय
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बंधक है और राग द्वेष सूक्ष्म प्रतिबंधक हैं - वे मन को अयथार्थ बना देते हैं । राग-द्वेष का आवरण जिसके मन पर चढ़ जाता है वह किसी वस्तु को 'सुखदायी, किसी को दुःखदायी, किसी को भली, किसी को बुरी समझने लगता है । पर वास्तवमै न कोई वस्तु बुरी है, न भली है । यह सब राग-द्वेष की क्रीड़ा है। रागद्वेष का खिलौना बनकर यह जीव किसी वस्तु को प्राप्त करके हर्ष-विभोर हो जाता है और किसी का संयोग पाकर दुःख से व्याकुल बन जाता है । यह हर्ष-विषाद हीं कर्म - बंध का जनक है और इसी से दुःखों के सागर में निमग्न होना पड़ता है । जो योगी राग-द्वेष से रहित है, वह प्रत्येक पदार्थ को वीतराग भाव से देखता है । पदार्थ परिणति का दृष्टा होते हुए भी उसमें राग-द्वेष का अनुभव नहीं करता। वह जानता है कि प्रत्येक पदार्थ अपने संयोगों के अनुसार परिणमन कर रहा है । उसमें राग द्वेष का संबंध स्थापित करने से श्रात्मा की समता भावना मलीन हो जाती है । अतएव योगी के लिए न कोई पदार्थ इष्ट होता है, न कोई अनिष्ट ही होता है । इष्ट-अनिष्ट पदार्थों का भेद न होने से संयोग की अवस्था में न हर्ष का अनुभव होता है और न वियोग की अवस्था में विषाद का अनुभव होता है । योगीजन दोनों अवस्थाओं में समान बने रहते हैं । अन्तःकरण में जब इस प्रकार की साम्यभाव रूप परिणति रहती है तब जीव कर्मों के समूह का - जिनका वर्णन द्वितीय अध्ययन में किया जा चुका - श्रन्त कर देता है ।
मूलः - जह रागेण कडा, कम्माणं पावगो फल विवागो ।
जह य परिहीणकम्मा, सिद्धा सिद्धालयमुर्वेति ॥ ६ ॥
छाया: - यथा रागेण कृतानां, कर्मणां पापकः फलविपाकः ।
. यथा च परिहीणकर्माणः सिद्धाः सिद्धालयमुपयान्ति ॥ ६ ॥ शब्दार्थः—जैसे राम भाव से बांधे हुए कर्मों का फल पाप रूप ( दुःख रूप ) होता है, वैसे ही कर्मों से सर्वथा रहित सिद्ध भगवान् सिद्धालय को प्राप्त होते हैं ।
भाष्य:--: -जैसे तराजू की डंडी में अगर उंचाई होती है तो निचाई भी अवश्य होती है, इसी प्रकार जहां राग होता है वहां द्वेप भी अवश्य होता है । राग के बिना द्वेप की स्थिति संभव नहीं है । इसीलिए राग द्वेष श्रादि समस्त दोषों को हटा देने वाले महापुरुष को वीतराग कहते हैं। वीतराग' कहने से ' वीतद्वेष ' का बोध स्वत: हो जाता है । इसी प्रकार यहां गाथा में राग के ग्रहण करने से द्वेष का भी ग्रहण समझना चाहिए। अतएव तात्पर्य यह है कि जो जीव राग और द्वेष के वशः होकर अशुभ कर्मों का उपार्जन करता है, उसे पापमय फल की प्राप्ति होती यै । कम की अशुभ प्रकृतियां पहले बतलायी जा चुकी हैं । उन प्रकृतियों का परिणाम उस जीव को भोगना पड़ता है ।
इससे विपरीत जो राग-द्वेष मय परिणामों का त्याग करके समस्त कर्मों का
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