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चतुर्थ अध्याय
[ १६६ ] खोज-खोज कर निकालना। . . . . . .
(२२) सर्व काम विरक्तता-इंद्रियों के भोगों से तथा सब प्रकार की कामनाओं से विरक्त रहना।
(२३) प्रत्याख्यान यम, नियम, तप, त्याग की शक्ति के अनुसार वृद्धि करते रहना।
(२४) व्युत्सर्ग-उपाधि से रहित होना, शिष्य श्रादि का अभिमान न करना ।
(२५) अप्रमाद-निद्रा, विकथा, जाति, कुल आदि का अहंकार श्रादि किसी भी प्रकार का प्रमाद न करना।
(२६ लवालव-जिस काल में जो क्रिया करनी चाहिए उस काल में उस क्रिया का निर्वाह करना।
(२७) ध्यान-भात-ध्यान और रौद्र-ध्यान का त्याग करके धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान धारण करना ।
__ (२८) संवर योग-मन वचन काया के अशुभ योगों को सम्यक् प्रकार से रोकना। - (२६) मारणान्तिक उदय-जीवन का अन्त करने वाले कष्ट उपस्थित होने पर भी चित्त में क्षोभ न होने देना।
(३०) संगपरिक्षाय-संसार का कारण समझ-बूझकर स्वजन परिजन संबंधी स्नेह को त्यागना।
(३१) प्रायश्चित्त-किये हुए पापों की निन्दा म करना, पश्चात्ताप करना और शल्य रहित वन जाना।
(३२) मारणान्तिक आराधना-श्रायु का अन्त सन्निकट पाया जानकर आहार आदि का त्याग कर देना, शारीरिक ममता का त्याग कर संथारा करना-समाधिभाव के साथ देह का परित्याग करना।
इस वत्तीस प्रकार के योग-संग्रह को जो मुनि अपने हृदय-प्रदेश में स्थापित कर तदनुकूल प्रवृत्ति करते हैं वे शीघ्र ही मुक्ति के अधिकारी वन जाते हैं । इनका आचरणं श्रात्म-शुद्धि का उत्कृष्ट उपाय है। मूलः-अरहंतसिद्धपवयणगुरुथेरबहुस्सुए तवस्सीसु ।
वच्छल्लया तेर्सि अभिक्ख, णाणोचोगे य ॥ १२ ॥ दंसणविणए प्रावस्सए य, सीलब्बए निरइयारो। खणलवतवच्चियाए, वेयावच्चे समाही यः ॥ १३ ॥ अपुव्वणाणगहणे, सुयभत्ती पवयणे पभावणया । एएहिं कारणेहिं, तित्थपरत्तं लहइ जीवो ॥ १४ ॥