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आत्म-शुद्धि के उपाय .:. (३) जैसे दो शिष्य एक ही शास्त्र का अध्ययन करते हैं। उनमें एक की ग्रहण और धारण करने की शक्ति अधिक होने से वह शीघ्र ही शास्त्र का अध्ययन कर लेता है और दूसरा धीरे-धीरे बहुत समय में अध्ययन कर पाता है, उसी प्रकार कर्म की स्थिति एक समान होने पर भी अध्यवसान श्रादि परिणामों से तथा चारित्र श्रादि . के भेद से कर्म के अनुभव में उत्कृष्ट, मध्यम तथा जघन्य काल-भेद होता है।
(४) जैसे लम्बी रस्सी को एक छोर से सुलगाने पर क्रमशः सुलगते-सुलगते लम्बे समय में सुलग चुकती है और यदि उसे इकट्ठा करके सुलगाया जाय तो शीघ्र ही सारी सुलग जाती है, उसी प्रकार कोई कर्म शीघ्र भोग लिया जाता है और कोई धीरे-धीरे भोगा.जाता है।
(५) जैसे गीला वस्त्र फैला देने से शीघ्र सूख जाता है और इकट्ठा कर रखने से उसके सूखने में बहुत काल लगता है इसी प्रकार कोई कर्म अपवर्तना आदि करण के द्वारा शीघ्र भोग लिया जाता है और कोई यथा-समय बन्धकालीन स्थिति के अनुसार भोगा जाता है। . .
इन उदाहरणों के अतिरिक्त और भी अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं, जिन से यह सिद्ध होता है कि दीर्घकाल में निष्पन्न होने वाली क्रिया को प्रयत्न की विशिमृता से अल्पकाल में ही लम्पन्न किया जा सकता है। अतएव पूर्वोक्त सात कारणों से श्रायु कर्म का उपक्रम होना युक्ति-संगत ही है। जो लोग मिथ्या धारणा के अनु.सार यह समझते हैं कि अकाल में आयु क्षीण नहीं होते, वे भी अपनी या अपने . कुटुम्बीजनों की.रुग्ण अवस्था में औषधोपचार कराते हैं । समय समाप्त हो जाने पर श्रायु टिक नहीं सकती, तो औषध आदि का उपचार निरर्थक ही सिद्ध होता है। इससे जान पड़ता है कि जो श्रायु का अकाल में क्षय होना नहीं कहते वे भी व्यवहार में क्षय होना अवश्य स्वीकार करते हैं। ..
- जब कि यह सिद्ध हो चुका कि अकाल में भी आयु टूट जाती है तव विवेकशील पुरुषों को जावन का विश्वास न करके, शीघ्र ही आत्म-शुद्धि के अनुष्टान में सलग्न हो जाना चाहिए । मूलः-जह मिउलेवालितं, गरुयं तुवं. अहो वयइ एवं ।
प्रासवकयकम्मगुरू, जीवा वचंति अहरगइं ॥ १८ ॥ तं चेव तविमुक्क, जलोवरिं ठाइ जायलहुभावं । जह तह कम्मविमुक्का, लोयग्गपइट्ठिया होति ॥१६॥ छाया:-यथा मृल्लेपालिप्तं गुरु तुम्बं अधो व्रजत्येवम् ।
यात्रवकृतकर्मगुरवों जीवा ब्रजन्त्यधोगतिम् ॥ १८ ॥ तञ्चैव तद्विमुक्नः जलोपरि तिष्ठति जातलंधुभावः ।। यथा तथा कर्मविमुक्ता लोकानप्रतिष्ठिता भवन्ति ॥ १६ ॥ .