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तृतीय अध्याय
। १६१ ] और प्रत्येक जिन की प्ररूपणा एक ही होती है अतएव उनका उपदिष्ट धर्म भी अनादि. कालीन है।
इसके अतिरिक्त प्ररूपणा सादि होने पर भी धर्म अनादिकालीन हो सकता है। श्राकाश के स्वरूप का अाज निरूपण करने से जैसे श्राकाश अद्यतत नहीं हो सकता उसी प्रकार जिनेन्द्र भगवान् द्वारा अमुक काल में धर्म की प्ररूपणा करने के कारण धर्म अमुककालीन नहीं हो सकता । धर्म वस्तु का स्वभाव है । वस्तु का स्वभाव अनादिकालीन ही होता है अतएव धर्म अनादिकालीन है।
- धर्म को ध्रुव बतलाकर सूत्रकार ने यह सूचित किया है कि विभिन्न तीर्थंकरों के शासन में, विभिन्न देशों और कालों में, धर्म कभी अन्यथा रूप नहीं होता । धर्म तीनों कालों में सदा एक रूप ही रहता है। जैसे अग्नि का स्वभाव भूतकाल में दाह रूप था; वर्तमान में दाह रूप है और भविष्य में भी दाह रूप ही रहेगा, उसी प्रकार प्रत्येक वस्तु का स्वभाव संदा काल एक रूप ही रहता है और वस्तु का स्वभाव ही धर्म कहलाता है श्रतएव वह कभी अन्यथा रूप नहीं हो सकता।
संसारी जीव की जन्म-मरण-जरा आदि व्याधियां त्रिकाल में एक-सी हैं और इन व्याधियों के निदान मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद तथा कषाय भी त्रिकाल में एकसे रहते हे अतएव इन व्याधियों की औषधि (धर्म) भी सदा एक-सी रहती है। अथवा पांच और पांच संख्याओं का योग दस होता है, यह भूत, वर्तमान और भविष्य-तीनों कालों के लिए सत्य है. इसमें समय के भेद ले भेद नहीं होता उसी प्रकार धर्म में भी काल भेद से भेद नहीं होता । यही सूचित करने के लिए उत्तरार्ध में कहा गया है कि इसी धर्म के द्वारा जीव सिद्ध हुए हैं, होते हैं और होंगे।
अवसर्पिणी काल के इस पांचवें भारे में यद्यपि कोई जीव भरतक्षेत्र से मुक्त नहीं होते तथापि विदेहक्षेत्र आदि की अपेक्षा से वर्तमान काल का कथन समझना चाहिए। क्योंकि विदेहक्षेत्र में वीस तीर्थकर विद्यमान रहते हैं और वहां से वर्तमान में भी सिद्धि प्राप्त की जा सकती है।
निर्ग्रन्थ-प्रवचन-वृतीय अध्याय
समाप्तम्.