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धर्म स्वरूप वर्णन
धम्मो मंगलमडलं, श्रीसंहमउलं च सव्वदुक्खाणं । धम्मो बलमवि विडलं, धम्मो ताणं च सरणं च ॥
अर्थात् - धर्म ही उत्कृष्ट मंगल है, धर्म ही समस्त दुःखों की सर्वश्रेष्ठ औषधी. है, धर्म ही विपुल बल है, धर्म ही त्राण है, धर्म ही शरण 1
जो लोग धर्म के वास्तविक स्वरूप से अनभिज्ञ हैं वे धर्म को पारस्परिक वैमनस्य का हेतु कह कर उसकी अवहेलना करते हैं । पर धर्म में प्राणी मात्र पर मैत्रीभाव रखने का आदेश दिया जाता है, वैमनस्य का नहीं। किसी धर्म का कोई अनुयायी यदि अन्यायी है तो उस अन्याय को धर्म का दोष नहीं समझना चाहिए । जो लोग किसी अनुयायी के व्यवहार को धर्म की कसौटी बनाते हैं, उनकी कसौटी ही खोटी है । धर्म अपनी कल्याणकारिता की कसौटी पर कसा जा सकता 1. शास्त्र प्रतिपादित धर्म के स्वरूप का निरीक्षण करने से धर्म एकान्त सत्य वस्तु स्वरूप का दर्शक, एकान्त कल्याणकारी और जगत् को शरणभूत प्रतीत होगा ।
मूलः - एस धम्मे धुवे णिच्चे, सासए जिणदेसिए ।
सिद्धा सिज्यंति चाणेणं, सिज्झिसंति तहावरे ॥ १४॥
छाया:- एपो धर्मो ध्रुवो नित्यः शाश्वतो जिनदेशितः ।
सिद्धाः सिध्यन्ति चानेन, सेत्स्यन्ति तथाऽपरे ॥ १४ ॥
शब्दार्थः - जिन भगवान् द्वारा उपदिष्ट यह धर्म ध्रुव है, नित्य है, और शाश्वत है । इस धर्म के निमित्त से अनन्त जीव सिद्ध हुए हैं, वर्त्तमान में सिद्ध हो रहे हैं तथा भविष्य में सिद्ध होंगे ।
भाष्यः – यहां पर सूत्रकार ने धर्म का माहात्म्य बतलाते हुए उसकी नित्यता का प्रतिपादन किया है ।
राग द्वेष आदि श्रन्तरिक शत्रुओं को जीतने वाला महापुरुष जिन कहलाता है । 'जिन' भगवान् के द्वारा जिस धर्म का निरूपण किया जाता है वह "जिनदेशित ' धर्म कहलाता है । इस अध्याय में जिस धर्म का निरूपण किया गया है वह धर्म जिनेन्द्र भगवान् द्वारा उपदिष्ट है और ध्रुव, नित्य तथा शाश्वत है । इसी धर्म का श्राश्रय लेकर अनादिकाल से अब तक अनन्त जीव सिद्धि ( मुक्ति ) प्राप्त कर चुके हैं, वर्त्तमान में भी इस धर्म के अनुष्ठान से जीव सिद्धि प्राप्त कर रहे हैं और भविष्य में भी इसी धर्म के श्राचरण से जावों को सिद्धि प्राप्त होगी ।
यहां यह जिज्ञासा हो सकती है कि यदि धर्म जिन भगवान् द्वारा प्ररूपित हुआ है तो वह नित्य अर्थात् श्रनादिकाल से अनन्त काल तक स्थिर रहने वाला किस प्रकार हो सकता है ? क्योंकि प्रत्येक जिन सादि हैं और उनकी प्ररूपणा भी सादि: ही होती है । इसका समाधान यह है कि यद्यपि प्रत्येक जिन सादि है- अनादिकालीन 'जिन' का होना असंभव है, तथापि जिन भगवान् की परम्परा अनादिकालीन है ।