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तृतीय अध्याय
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होता है । ' निस्सेसं ' अर्थात् सम्पूर्ण । यह श्रुत का विशेषण है अतः उससे यह श्राशय निकलता है कि विनय से सम्पूर्ण श्रुत की प्राप्ति होती है । सम्पूर्ण श्रुत की प्राप्ति होने से पुरुष श्रुत केवली पद प्राप्त करना है और श्रुत के द्वारा सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञाता बन जाता है ।
मूलः - अणुसिंहं पि बहुविहं, मिच्छदिट्टिया जे नरा अबुद्धिया । बद्धनिकाइयकम्मा, सुति धम्मं न परं करेति ॥ ॥
छाया:- अनुशिष्टमपि बहुविधं, मिथ्यादृष्टयो ये नरा श्रबुद्धयः । बद्धनिकाचितकर्माणः शृण्वन्ति धर्मं न परं कुर्वन्ति ॥ ८ ॥
शब्दार्थः—जो मनुष्य मिध्यादृष्टि, और बुद्धिहीन होते हैं, और जिन्होंने प्रगाढ़ कर्म बांधे हैं, वें गुरु के द्वारा नाना प्रकार से प्रतिपादित धर्म को सुन तो लेते हैं पर उसका आचरण नहीं करते ।
भाष्यः–धर्म का स्वरूप और धर्म का मूल प्रतिपादन करने के पश्चात् यहां यह बताया गया है कि धर्म का आचरण करने का पात्र कौन होता है और कौन नहीं होता ?
जिनकी दृष्टि मिथ्या है अर्थात् दर्शन मोहनीय कर्म के प्रबल उदय से जिन्हें जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्रतिपादित तत्वों पर श्रद्धा नहीं है. और सम्यग्दृष्टि न होने के कारण जो अज्ञानी हैं- जिन्हें सत्-असत् का विवेक नहीं है और जिन्होंने तीव्र संक्लेश परिणामों के कारण गाढ़े और चिकने कर्म वांधे हैं वे सद्गुरु द्वारा भांतिभांति से उपदिष्ट धर्म के स्वरूप को सुनकर भी उसका श्राचरण नहीं करते हैं । तात्पर्य यह है कि मिथ्यादृष्टि और मिथ्याज्ञानी होने के कारण वे सम्यक् चारित्र रूपधर्म को अंगीकार करने में समर्थ नहीं होते हैं ।
प्रत्याख्यानावरण कषाय के क्षय या उपशम से सर्व विरति रूप चारित्र होता है और प्रत्याख्यानावरण के क्षय या उपशम से देशविरति चारित्र की प्राप्ति होती हैं। जो मिध्यादृष्टि है उसके अनन्तानुबन्धी कपाय का उदय होता है और अनन्तानुचन्धी कषाय सम्यक्त्व और चारित्र दोनों का घात करती है । अतएव मिध्यादृष्टि जीव धर्म का श्राचरण नहीं कर पाते । सूत्रकार ने इस कथन से यह भी सूचित किया है कि अतिशय पुण्योदय से जिन्हें सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गई है और जो हिताहित का विचार करने में समर्थ हैं और जिनके कर्म निकाचित नहीं हैं, उन्हें धर्म का श्रवण करके यथाशक्ति अवश्य पालन करना चाहिए ।
मूल :- जरा जाव न पीडेइ, वाही जाव न बड्ढई 1 जाविंदिया न हायंति, ताव धम्मं समायरे ॥ ६ ॥