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तृतीय अध्याय .
[ १५७ ] मूलः-जा जा वच्चइ रयणी, न सा पडिनिप्रत्तइ।
अहम्म कुणमाणस्स, अफला जति राइनो ॥१०॥ छाया:-या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्त्तते ।
अधर्म कुर्वाणस्य, अफला यान्ति रात्रयः ॥ १०॥ शब्दार्थः-जो-जो रात्रि चली जाती है वह लौटकर नहीं आती । अधर्म करनेवाले की रात्रियां निष्फल जाती हैं।
. भाप्यः-सभ्यदृष्टि जीवों को धर्म में उन्मुख करने की विशेष प्रेरणा करने के लिए काल का मूल्य यहां बताया गया है । सूत्रकार का आशय यह है कि परिमित समय तक रहने वाले जीवन का एक-एक दिन और रात्रि भी अमूल्य है, क्योंकि संसार का उत्तम से उत्तम पदार्थ मूल्य देकर खरीदा जा सकता है । गया हुआ जवाहरात रुपयों से फिर प्राप्त किया जा सकता है, गया हुआ राज्य भी मिल सकता है, नष्ट हुश्रा धन पुनः उपार्जन किया जा सकता है । अतएव यह सब पदार्थ बहुमूल्य भले ही हों पर अमूल्य नहीं हैं। मगर जीवन का एक एक दिन और एक-एक घंटा, घड़ी, मिनिट, क्षण और समय-जो बीत जाता है सो फिर किसी भी भाव नहीं खरीदा जा सकता । समस्त पृथ्वी बदले में देकर भी कोई अपने जीवन के बीते हुए क्षण वापिस नहीं पा सकता । अतः जीवन के क्षण अमूल्य हैं। इन क्षणों को सफल बनाने का एक मात्र उपाय धर्म का सेवन करना ही है । धर्म-सेवन के अतिरिक्त . जीवन की और कोई सार्थकता या सफलता नही है।
___ जो लोग अधर्म का सेवन करते हैं अर्थात् हिंसा आदि पापमय व्यापारों में संलग्न रहते हैं, विषय-कपाय का पोषण करने में लगे रहते हैं और धर्म का आचरण नहीं करते, उनके जीवन की रात्रियां निष्फल जाती है । उनका जीवन निरर्थक हो जाता है। असीम पुण्योदय से प्राप्त जीवन को अधर्म के सेवन में व्यतीत कर देना कितना बड़ा प्रमाद है ? इसलिए हे भन्य जीव ! तुझे अनुपम अवसर मिला है। चेत, शीघ्र सावधान हो । जीवन को सफल बनाने के लिए धर्म-सेवन कर।
यहां और अगली गाथा में अधर्म करने वाले की रात्रि निष्फल और धर्म करने चाले की रात्रि सफल बताई है, सो 'रात्रि' शब्द उपलक्षण है। उससे वर्ष, मास, पक्ष, सप्ताह, दिन मुहर्त, घंटा, मिनिट आदि अन्य काल विभागों का भी ग्रहण कर लेना चाहिए। मूलः-जा जा बच्चइ रयणी, न सा पडिनिअत्तइ । .
धम्मं च कुणमाणस्स, सफला जति राइनो ॥ ११ ॥ ___ छायः-या या व्रजति रजनी, न सा प्रतिनिवर्तते । ।
__भमं च कुर्वाणस्य, सफला यान्ति रात्रयः ॥ ११ ॥