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तृतीय अध्याय
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फल है । जो दुःख भोग रहा है उसने पाप कर्म का उपार्जन अवश्य किया है । अतएव पाप के फल को भोगना उसके लिए श्रनिवार्य है । इस जन्म में, या आगामी जन्म में 'फल-भोग जब अनिवार्य है तो कोई प्राणी की हिंसा करके उसे फल-भोग से कैसे 'चंचा सकता है ! अतएव जो श्रास्तिक पुण्य पाप और परलोक में श्रद्धान रखता है वह ऐसा घृणित और अज्ञानतापूर्ण कार्य कदापि नहीं कर सकता । इसके अतिरिक्त दुःखी जीव भी मरना नहीं चाहते । मरण उन्हें अप्रिय है, इसलिए भी उन्हें मारना उचित नहीं कहा जा सकता ।
अगर दुःखी प्राणियों को मारना कर्त्तव्य समझा जाय तो सुखी जीव बहुत पाप करते हैं, अतः उन्हें पाप से बचाने के लिए उन्हें भी मार देना कर्त्तव्य ठहरायगा । इस प्रकार हिंसा की परम्परा बढ़ती चली जायगी । उसका कहीं भी अन्त नहीं होगा ।
कई लोग कुसंस्कारों से प्रेरित होकर देवी-देवताओं को बलि चढ़ा कर हिंसा करते हैं और उसे अधर्म नहीं मानते । उन्हें यह सोचना चाहिए कि देवता क्या कभी मांस-भक्षण करते हैं ? यदि नहीं, तो उनके लिए किसी प्राणी के प्यारे प्राणों का घात करना उचित कैसे कहा जा सकता है ? हिंसा और धर्म का आपस में विरोध है । जो हिंसा है वह धर्म नहीं और जो धर्म है वह हिंसा नहीं है । ऐसी स्थिति में चाहे चेदोन हिंसा हो, चाहे किसी अन्य शास्त्र में प्ररूपित हिंसा हो, वह धर्म कदापि नहीं हो सकती । जो वेदोक्त हिंसा को हिंसा ही नहीं समझते, उनसे यह पूछना चाहिए कि क्या वैदिक मंत्रों का उच्चारण करके की जाने वाली हिंसा से प्राणी का घात नहीं होता है ? क्या उसे घोर दुःख नहीं होता है ? यदि यह दोनों बातें होती है तो फिर उसे हिंसा न मानने का क्या कारण है ? यदि यह कहा जाय कि मंत्रोच्चारण- पूर्वक की हुई हिंसा से मरने वाला प्राणी स्वर्ग-लाभ करता है अतएव यह हिंसा पाप नहीं है, तो इस कथन की सचाई का प्रमाण क्या है ? क्या कभी कोई जीव स्वर्ग से आकर कहता है कि मैं वैदिक हिंसा से मर कर स्वर्ग में देव हुआ हूँ ? ऐसा न होने पर भी केवल मिथ्या श्रद्धा के कारण जो लोग इस प्रकार की हिंसा करते हैं उन्हें अपने माता-पिता आदि प्रियजनों पर उपकार करके उन्हें भी स्वर्ग भेज देना चाहिए | स्वर्ग प्राप्ति का जब इतना सरल और सीधा उपाय है तो क्यों नहीं अपने प्रियजनों को ही लोग बलि चढ़ा कर स्वर्ग पहुँचाने का पुराय लूटते हैं ? उनकी करुणा बेचारे दीन, हीन और मूक पशुओं पर ही क्यों बरसती है ?.
बलि चढ़ने वाले पशु को स्वर्ग प्राप्ति होती हैं, ऐसा कहने वाले कर्मों के फल भोग के विषय में क्या कहेंगे ? बध्य पशु ने यदि पाप का उपार्जन किया है तो.. उसे पापों का फल नरक आदि अशुभ गति न मिल कर स्वर्ग गति कैसे मिल सकती है ? यदि मिलती है तो कृत कर्म नाश और अकृत कर्म का भोग मानना पड़ेगा, जो फि उचित नहीं है । अतएव यह स्पष्ट है कि धर्म मान कर की जाने वाली हिंसा भी उसी प्रकार घोर दुःख देने वाली है जैसी कि दूसरी हिंसा है | अतः विवेकजिनों को उससे भी बचना चाहिए ।