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धर्म स्वरूप वर्णन एएच किसी ने ठीक ही कहा है-हिंसा नाम भवेद धर्मो न भूतो न भवि. ..... यति' अर्थात् हिंसा धर्म नहीं है, न थी और न कभी होगी। अतएव हिंसा सदा ही
घोर पाप है । जिन प्राणों की रक्षा के लिए प्राणी अपने विशाल साम्राज्य का भी तृण की तरह लाग कर देता है उन -प्राणों के घात करने से इतना भीषण पाप लगता है कि समस्त पृथ्वी का दान कर देने से भी उस पाप का शमन नहीं हो सकता । अला विचार कीजिए कि बन में घास-पानी खा-पीकर जीवन-निर्वाह करने वाले निर्बल पशुओं की हत्या करने वाला पुरुष क्या कुत्ते के समान ही नहीं है ? तिनके की नोंक चुभाने से मनुष्य दुःख का अनुभव करता है तो तीखे शस्त्रों से मूक प्राणियों का शरीर चलनी बनाने ले उन्हें कितनी वेदना होती होगी ? अतएव जो नरक की भीषण्ण ज्वालानों में पड़ने से बचना चाहते हैं उन्हें हिंसा से बचना चाहिए और अपने सुरज दुःख की कसौटी पर ही दूसरे जीवों के सुख-दुःख की परख करना चाहिए । जो दूसरे को सुख पहुंचाता है उसे सुख प्राप्त होता है और दूसरों को दुख देने वाले को दुःख भोगना पड़ता है। यह सिद्धान्त अटलं और अचल है ।
पूर्वोक्त सब प्रकार की हिंसा का त्याग करना अहिंसा है। यह अहिंसा उत्कृष्ट मंगल रूप है । अहिंसा से संसार में दीर्घ श्रायु, सुन्दर शरीर, निरोगता प्रतिष्ठा, विपुल ऐश्वर्य आदि की प्राप्ति होती है और परम्परा से मुक्ति-लाभ होता है । अतएव अहिंसा सभी जीवों के लिए माता के समान हितकारिणी है, पाप-निवारिणी है, संसार-सागर ले तारिणी है, सर्वसंताप-हारिणी है । जगत् में अहिंसा ही स्थायी शान्ति स्थापित कर सकती है। अहिंसा ही जीवन को शान्ति प्रदान कर सकती है। अहिंसा के बिना संसार श्मशान के तुल्य भयानक है । अहिंसा के विना जीवन घोर अभिशाप है । अहिंसा दोनों लोकों में एक मात्र अवलम्बन है। हिंसा विनाश है. विनाश का मार्ग है, विनाश का आह्वान है । अहिंसा अमृत है, अमृत का 'अक्षय कोश है, अमृत का अाह्वान है । सुन और शान्ति केवल अहिंसा पर ही अवलंबित हैं।
धर्म का द्वितीय रूप यहाँ संयम बतलाया गया है। संयम का अर्थ है-इन्द्रियों और मन का दमन करना तथा प्राणी की हिंसा जनक प्रवृत्ति से बचना । संयम अहिंसा रूपी वृक्ष की ही एक शाखा है । कहा भी है-..... ___... ... ... अहिंसा निउणा दिट्ठा सयभूएसु:संजमो .... ...
अर्थात् लमस्त प्राणियों पर संयम रखना यही अाहिला है। इस प्रकार संयम और अहिंसा एक रूप होने पर भी यहाँ संयम को पृथक् कहने का प्रयोजन इतना हीं है कि अहिंसा की आराधना के लिए संयम की मुख्य अपेक्षा है। संयम का पाचरंग करने से अहिंसा का ठीक-ठीक आचरण हो सकता है। असंयमी पुरुप अहिंसा का आचरण नहीं कर सकता। संयम. संक्षेप से दो प्रकार का है। (१) इंद्रिय संयम और । २)प्राणी संयम । पाँचों इन्द्रियों को और मन को अपने-अपने विषयों में. प्रवृत्ति करने से रोक कर श्रात्मा की ओर उन्मुख करना इन्द्रिय संयम. है। और षट्काय के जीवों की हिंसा का त्याग करना प्राणी संयम है। . . . . . . . . . .