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धर्म स्वरूप वर्णन उ०-हे गौतम ! कर्म-मल के नाश से योग (मन-वचन-काय के व्यापार )
का निरोध होता है। प्र०-हे भगवन् ! योग के निरोध का क्या फल है ? उ०हे गौतम ! योग के रुकने से सिद्धि प्राप्त होती है।
-भगवती श० ३, उ०५ इस प्रश्नोत्तर से धर्म-श्रवण के फल का भली भांति बोध हो जाता है और साथ ही यह भी ज्ञात हो जाता है कि किस क्रम से आत्मा अग्रसर होते-होते अन्त में मुक्ति को प्राप्त करता है।
अतएव मनुष्य-भव पा लेने के पश्चात् जिन भात्यशालियों को सर्वज्ञ वीतराग द्वारा प्ररूपित, कल्प वृक्ष के समान समस्त अभीष्टों को सिद्ध करने वाले सद्धर्म के श्रवण का सुअवसर प्राप्त हुआ है उन्हें अान्तरिक अनुराग के साथ उसे श्रवण करना चाहिए और उसके अनुसार आचरण करना चाहिए। मूलः-धम्मो मंगलमुक्किठं, अहिंसा संजमो तवो ।
देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मणो ॥५॥ छाया:-धर्मों मङ्गलमुत्कृष्टं, अहिंसा संयमस्तपः ।
देवा अपितं नमस्यन्ति, यस्य धर्म सदा मनः ॥ ५ ॥ — शब्दार्थः-अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म सर्वश्रेष्ट मंगल है । जिसका मन इस धर्म में सदा रत रहता है उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
भाष्यः-मानव-शरीर पा लेने के बाद भी जिस धर्म का श्रवण दुर्लभ है, उस धर्म का स्वरूप सूत्रकार ने यहां बताया हैं।
मं-पापं, गालयति-इति मङ्गलस् , ' अर्थात् जो पाप का विनाश करता है वह मंगल कहलाता है । अथवा 'मंग-सुखं लातीति मंगलम् ' अर्थात् जो मंग ( सुख । को लगता है जिससे सुख की प्राप्ति होती है उसे मंगल कहते हैं। धर्म मंगल है, अर्थात् धर्म से ही पापों का विनाश होता है और धर्म से ही सुख की प्राप्ति होती है।
संसार में अनेक प्रकार के मंगल-माने जाते है । परदेश गमन करते समय जल से भरे हुए घड़े का दीखना, फूलमाला का नज़र श्राना तथा हल्दी, श्रीफल, श्राम्र पत्र, पान आदि-श्रादि अनेक वस्तुएँ मंगल रूप मानी जाती हैं । धर्म भी क्या इसी प्रकार-इन्ही वस्तुओं के समान मंगल है ? इस प्रश्न का समाधान करने के लिए ' उक्किएं । ( उत्कृष्ट ) पद सूत्रकार न ग्रहण किया है। इसका तात्पर्य यह है कि अन्य वस्तुएँ लोक में मंगल रूप अवश्य मानी जाती हैं किन्तु उस मंगल में भी अमंगल छिपा रहता है अथवा उस मंगल के पश्चात् फ़िर अमंगल प्राप्त होता है। उदाहरणार्थ-वाणिज्य के लिए परदेश जाने वाले व्यक्ति को सजल घट सामने मिला। जाएँ तो वह मंगल समझेगा। पर इस मंगल का क्या परिणाम होगा.? उसे व्यापार
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गम