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तृतीय अध्याय -
[ १४१ ]
आर्यक्षेत्र में जन्म लेने पर भी धार्मिक कुल में जन्म मिलना दुर्लभ होता है । क्योंकि आर्यक्षेत्र में भी अधिकांश कुल ऐसे होते हैं जिनमें वास्तविक धर्म के संस्कार नहीं होते । कोई धर्म से उपेक्षा करते हैं कोई धर्म को दंभ कहते हैं, कोई धर्म को उपादेय समझते हुए भी मिथ्या धर्म को ग्रहण करके उलटा श्राहित कर बैठते हैं । ऐसे कुल में जन्म लेने वाली सन्तान भी प्रायः उसी प्रकार के संस्कार ग्रहण कर लेती है ।
अब यह स्पष्ट है कि मानव शरीर पा लेने पर भी धर्म श्रवण का पुण्य अवसर मिलना दुर्लभ हो जाता है । अतएव इन सब दुर्लभ निमित्तों को पा लेने के पश्चात् प्रत्येक प्राणी को अप्रमत्त भाव से धर्म-श्रवण करना चाहिए । इस बहुमूल्य कारण सामग्री को प्राप्त कर चुकने पर भी जो धर्म-श्रवण नहीं करते वे चिन्तामणि पाकर भी उसे अपने अविवेक के कारण अथाह समुद्र में फेंक देते हैं ।
धर्म, आत्मा का स्वभाव है । अतएव वह सदैव आत्मा में विद्यमान रहता है | फिर उसे श्रवण करने से क्या लाभ है ? इस शंका का समाधान करते हुए सूत्रकार ने उत्तरार्ध में कहा है- ' जं सोचा पंडिवज्जति तवं खंतिमहिसयं । ' अर्थात् धर्मश्रवण करने से तप, क्षमा और अहिंसकता की प्राप्ति होती है । श्रागे निरूपण किये जाने वाले बारह प्रकार के तप को, क्रोध के प्रभाव रूप क्षमा को और पर-पीड़ा का श्रभाव रूप अहिंसकता को, मनुष्य धर्म-श्रवण करके ही जानता है और जब उनके यथार्थ स्वरूप को जान लेता है तभी उन्हें श्राचरण में लाता है । अतएव धर्म श्रवण का साक्षात् फल तप, शान्ति और हिंसा के स्वरूप का ज्ञान हो जाना और परम्परा फल मुक्ति प्राप्त होना है । भगवती सूत्र में कहा है
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प्रश्न - हे भगवन् ! श्रवण का क्या फल है ? उत्तर- हे गौतम ! श्रवण का फल ज्ञान 1 प्र०—हे भगवन् ! ज्ञान का क्या फल है ?
उ०- हे गौतम ! ज्ञान का फल विज्ञान है ( हेयोप देय का विवेक हो जाना
विज्ञान कहलाता है | )
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प्र००-हे भगवन् ! विज्ञान का क्या फल 7?
- उ० - हे गौतम ! विज्ञान का फल प्रत्याख्यान है ।'
प्र०
- हे भगवन् ! प्रत्याख्यान का क्या फल है ? उ०- हे गौतम ! प्रत्याख्यान का फल संयम है । प्र० - हे भगवन् ! संयम का क्या फल है ?
है 1
उ०- हे गौतम! संयम का फल श्रस्रव का रुकना - हे भगवन् ! श्रस्रव रुकने का क्या फल है ?
प्र०
उ०
०-- हे गौतम ! श्रास्रव रुकने से तपश्चरण शक्य होता है ।
प्र०-हे भगवन् ! तपश्चरण का क्या फल है ?
उ०- - हे गौतम ! तपश्वरण से श्रात्मा का कर्म-मल नष्ट होता है । प्र०-हे भगवन् ! कर्म-मल के नाश का क्या फल है ?