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तृतीय अध्याय :
। १३६ । और कर्तव्य महान् है, इसलिए जो अवसर हाथ लगा है उसे व्यर्थ न जाने दे । यही सूचित करने के लिए सूत्रकार ने मानव-जीवन का कालिक विश्लेषण करके दस अवस्थाओं का वर्णन किया है। मूलः-माणुस्सं विग्गहं लधु, सुई धम्मस्स दुल्लहा । . जं सोचा पडिवति, तवं खतिमहिंसयं ॥४॥
छायाः-मानुष्यं विग्रहं लब्ध्वा, श्रुतिधर्मस्य दुर्लभा ।।
यं श्रुत्वा प्रतिपद्यन्ते, तपः शान्तिमहिंस्रताम् ॥ ४॥ शब्दार्थः-मानव-शरीर पाकरके भी धर्म का श्रवण दुर्लभ है धर्म-श्रवण करने का अवसर मिलना कठिन है, जिसको सुनने से तप, क्षमा, और अहिंसा को पालन करने की इच्छा जागृत होती है ।
भाष्यः-पहले मनुष्य की दस अवस्थाओं का निरूपण किया है। यदि वह अवस्थाएँ जीव को प्राप्त हो जाएँ तो भी धर्म के स्वरूप का श्रवण दुर्लभ है अर्थात सर्वज्ञ और वीतराग द्वारा निरूपित निर्गन्थ-प्रवचन के उपदेश को सुनने का सौभाग्य अत्यन्त कठिनता से प्राप्त होता है।
धर्म के उपदेश को श्रवण करने के लिए दीर्घायु, परिपूर्ण इन्द्रियाँ, शारीरिक आरोग्य, सद्गुरु का समागम आदि निमित्त कारणों की आवश्यकता होती है। इन निमित्त कारणों का मिलना सरल नहीं है।
उक्त निमित्त कारणों में से दीर्घायु के विषय में कहा जा चुका है। पुण्य के प्रबल उद्य से यदि दीर्घायु मिल जाती है, तो भी जब तक इन्द्रियाँ परिपूर्ण नहीं होती तब तक आत्महित चाहने वाले मुमुक्षु प्राणियों का प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। इसी कारण शास्त्रों में कहा है
जाविन्दिया न हायति ताव धम्म समायर । अर्थात् जब तक इन्द्रियाँ क्षीण नहीं होने पाती तब तक धर्म का आचरण कर लो। फिर धर्म का आचरण होना कठिन हो जायगा। क्योंकि संसार में अनेक ऐसे प्राणी हैं जो इन्द्रियों की विकलता के कारण जीवन का सदुपयोग नहीं कर पाते, वरन् उन्हें जीवन भारभूत प्रतीत होता है । जो वधिर (वहरे ) हैं, वे धर्म-श्रवण करने में असमर्थ हैं। जो नेत्रहीन हैं वे शास्त्रों का अवलोकन नहीं कर सकते इसी प्रकार जो गूगा श्रादि अन्य किसी इन्द्रिय ले हीन होता है वह भी भली भाँति धर्म का श्रवण और तदनुसार सम्यक् आचरण नहीं कर सकता।
___ इन्द्रियाँ परिपूर्ण और कार्यकारी होने पर भी यदि शरीर नीरोग न रहे तो भी धर्म की आराधना नहीं हो पाती । इसलिए शास्त्र में कहा है-'चाही जाव न बर्ह अर्थात् जब तक शरीर में व्याधि नहीं बढ़ती है तब तक धर्म का आचरण करलो। शाखकार ने इस वाक्य में 'बड्ढई' पद दिया है। इसका आशय यह है कि शरीर में