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धर्म स्वरूप वर्णन जब तक शरीर में सामर्थ्य है, इन्द्रियों में बल है और मस्तिष्क में हिताहित के विवेक की शक्ति है, तब तक मनुष्य को अपना प्रयोजन सिद्ध कर लेना चाहिए -
आत्म-कल्याण के मार्ग पर अग्रसर हो लेना चाहिए। जब शरीर और इन्द्रियां आदि चेकार होजाएँगी तव आत्मा के कल्याण की चेष्टा करना, झोपड़ी में आग लगने पर कुत्रा खुदवाने के समान असामयिक और अनुपयोगी है । अपने जीवन की अनमोलता का विचार करो। निश्चय समझो कि सदा इतने पुण्य का उदय नहीं रह सकता कि पुनः पुनः मनुष्य भव की प्राप्ति हो सके । इस जीवन को विषय-वासनाओं के पोषण में व्यतीत न करो। तुम्हें जो बहुमूल्य चिन्तामणि हाथ लग गया है लो उसका अधिक से अधिक सदुपयोग करो। उसे कौवा उड़ाने के लिए न फैंकदो। .
_ मनुष्य अायु अत्यन्त परिमित है और वह भी अनेक विघ्न-बाधाओं से भरी हुई है । जिस क्षण में जीवन विद्यमान है उससे अगले क्षण का विश्वास नहीं किया जा सकता। अतएव अप्रमत्त भाव से प्रात्म हित का मार्ग ग्रहण करो। स्त्री-पुरुष के एक बार के संयोग से असंख्यात सममूर्छिय मनुष्य और नौ लाख संज्ञी मनुष्यों की उत्पत्ति होती है। उनमें से एक-दो-तीन या चार जीव ही अधिक से अधिक बच पाते हैं । शेष सब दीर्घायु के अभाव में मरजाते हैं । इस बात का विचार करो कि तुम्हें दीर्घ जीवन प्राप्त करने का भी सुयोग्य मिल गया है । सूयगड़ांग सूत्र में कहा है
डहरा वुड्ढा या पासह, गम्भत्था वि चयति माणवा।
सेणे जह वयं हरे, एवं पाउखयंमि तुहई ॥ श्री आदिनाथ भगवान् ने अपने पुत्रों से कहा है-वालक, वृद्ध और यहांतक कि गर्भस्थ मनुष्य भी प्राणों से हाथ धो बैठते हैं। जैसे बाज पनी तीतर पनी के ऊपर झपट कर उसे मार डालता है उसी प्रकार आयु का क्षय होने पर मृत्यु मनुष्य के प्राणों का अपहरण कर लेती है।
जीवन का अन्त करने के इतने अधिक साधन जगत् में विद्यमान हैं कि जीवना के अन्त होने में किंचित् भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आश्चर्य की बात हो तो मनुष्य का जीवितं रहना ही श्राश्चर्यजनक हो सकता है। मानव-जीवन चक्की के दोनों पाटों के बीच पड़े हुए दाने के समान है, जो किसी भी क्षण चूर-चूर हो सकता है इस प्रकार विनश्वर जीवन का आधा हिस्सा रात्रि में शयन करने में व्यतीत हो जाता है और आधा हिस्सा संसार सम्बन्धी प्रपंचों में मनुष्य बिता देते हैं । यह कितने खेद की बात है।
हे भव्य जीव ! तू अपनी आयु की दुर्लभता का विचार कर, उसकी परिमितता और विनश्वरता को सोच । फिर शीघ्र से शीघ्र उसके अधिक से अधिक सदुपयोग का विचार करके सदुपयोग कर डाल । जो क्षण जा रहा है वह कभी-वापिस नहीं पायगा। उसके लिए पश्चात्ताप न करना पड़े, ऐसा कर्तव्य कर और मानव-जीवन सर्वश्रेष्ठ साधना-मुक्ति के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रह । समय अत्यन्त अल्प है।