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तृतीय अध्याय
[ १४३ ] में लाभ होगा - उसके परिग्रह की वृद्धि होगी, और परिग्रह पाप रूप होने के कारण अमंगल है | इसी प्रकार धनोपार्जन में होने वाले सावद्य व्यापार से हिंसा की पाप होगा और हिंसा भी अमंगल है | अतएव यह स्पष्ट है कि सजन घट रूप मंगल, परिणाम में अमंगल का जनक है- - उस मंगल में घोर श्रमंगल छिपा हुआ है । यही नहीं, वह मंगल क्या भविष्यकाल के समस्त अमंगलों का निवारण कर सकता है ? कदापि नहीं । इस प्रकार लोक में जो मंगल समझा जाता है वह मंगल उत्कृष्ट मंगल नहीं है । उत्कृष्ट मंगल तो धर्म ही हो सकता है, जिसकी प्राप्ति होने पर अमंगल की संभावना नहीं रहती और जिस मंगल में अमंगल का रंचमात्र भी सद्भाव नहीं है । यही भाव प्रकट करने के लिए सूत्रकार ने धर्म को सिर्फ मंगल नहीं, किन्तु उत्कृष्ट मंगल कहा
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'धम्मो मंगलमुकिक' इस पद की दूसरी तरह से भी व्याख्या की जा सकती । वह इस प्रकार है- जो उत्कृष्ट मंगल रूप है, जो दुःख एवं पाप का विनाशक है और जिससे सुख की प्राप्ति होती है वही धर्म है । जो इस लोक में और परलोक में श्रात्मा के लिए अनिष्टजनक है वह मंगल रूप न होने के कारण अधर्म है । इस व्याख्या के अनुसार यह भी कहा जा सकता है कि जो श्रात्मा के लिए मंगल रूप है वह आत्म- धर्म है, जो समाज के लिए मंगल रूप है अर्थात् जिससे समाज में सुख और शान्ति का प्रसार होता है वह समाज धर्म है । । जिल प्राचरण या व्यवहार से राष्ट्र का मंगल सिद्ध होता है - राष्ट्र में अमनचैन की वृद्धि होती है वह आचरण राष्ट्र धर्म है । जिस व्यवहार से जाति सुखी होती है, जाति के पाप अर्थात् बुराइयाँ दूर होती हैं, वह जातीय धर्म हैं । इस व्याख्या से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी परम्परा, चाहे वह अर्वाचीन हो या प्राचीन हो, तभी उपादेय हो सकती है जब उसमें कल्याण करता का तत्त्व विद्यमान हो । जो श्राचार राष्ट्र के लिए अकल्याण कर है वह राष्ट्रीय अधर्म है, जिसके व्यवहार से समाज और जाति का अहित होता है वह चाहे प्राचीन ही क्यों न हो. वह सामाजिक अधर्म और जातीय अधर्म है । तात्पर्य यह है कि कल्याण और अकल्याण ही धर्म और अधर्म की कसौटी है । इस व्यवहार धर्म के स्वरूप को भलीभाँति हृदयंगम कर लिया जाय तो पारस्परिक वैमनस्य क्षीण हो सकते हैं और राष्ट्र में, समाज में एवं जाति में कल्याणकारी परम्पराओं की प्रतिष्ठा - की जा सकती है।
इस प्रकार सूत्रकार ने धर्म का कल्याण के साथ संबंध स्थापित करने के पश्चात् धर्म के स्वरूप का भी निर्देश कर दिया है । वह मंगलमय धर्म क्या है ? इस पश्न के समाधान में सूत्रकार कहते हैं - ' अहिंसा संजयो तवो, ' अर्थात् श्रहिंसा, संयम और तप धर्म के तीन रूप हैं। यह तीनों ही धर्म के रूप पाप के विनाशक और सुख-शांति के जनक हैं । जैसे आत्मा के कल्याण के लिए इन तीनों की अनिवार्य आवश्यकता है उसी प्रकार समाज के कल्याण के लिए भी इनकी श्रावश्यकता है। जिस व्यक्ति के जीवन में और जिस समाज के जीवन में यह तीन दिव्य गुण श्रोत-प्रोत नहीं होते