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द्वितीय अध्याय
[ १२६ } तणहा हया जस्स न होइ लोहो,
- लोहो हो जस्स न किंचणाई ॥२॥ छाया:-दुःखं हतं यस्य न भवति मोहः, मोहो हतो यस्य न भवति तृष्णा ।
तृष्णा हता यस्य न भवति लोभः, लोभो हतो यस्य न किल्चन ॥ २८ ॥ शब्दार्थः-जिसने दुःख का नाश कर दिया है उसे मोह नहीं होता है । जिसने मोह का नाश कर दिया है उसे तृष्णा नहीं होती है। जिसने तृष्णा का नाश कर दिया है उसे लोभ नहीं होता है । जिसे लोभ नहीं रहता वह अकिंचन बन जाता है ।
भाष्य-पूर्व गाथा में जन्म-मरण रूप दुःख का कारण कर्म कहा है । अर्थात् कर्म कारण है और दुःख कार्य है। यहाँ कार्य अर्थात् दुःख में कारण का अर्थात् कर्म का आरोप करके, कर्म को ही दुःख कहा है। वास्तव में कर्म दुःख रूप भी है, अतएव कर्म को दुःख कह देना उचित है। अतएव जिसने साम्यभाव रूप संवर का अवलंबन करके कर्म को जीत किया है वह मोह को भी जीत लेता है-अर्थात राग-द्वेष का अन्त कर देता है । और जिसने राग-द्वेष को जीत लिया है उसकी तृष्णा अपने आप समाप्त हो जाती है, क्योंकि जर किसी भी पदार्थ के उपर राम भाव नहीं रहता तब उसे पाने की अभिलाषा भी नहीं रहती है और अभिलाषा ही तृष्णा है। तृष्णा का जब अंत हो जाता है तब संचित पदार्थों को सुरक्षित रखने के लिए जीव में व्याकुलता नहीं रहती अर्थात् लोभ का भी अंत हो जाता है । लोभ का अन्त होने पर कोई भी विकार शेष नहीं रह पाता है।
दशवें गुणस्थान में सूक्ष्म लोभ का अस्तित्व रहता है । आत्मा जब दसर्व गुणस्थान से भागे बारहवें गुणस्थान में प्रवेश करने लगता है उसी समय लोभ का सर्वथा क्षय हो जाता है । समस्त विकारों को उत्पन्न करने वाले मोहनीय कर्म की सेना का सबसे अंतिम सैनिक लोभ ही है । अन्यान्य सैनिकों का क्षय इससे पहले ही हो चुकता है । यह लोभ सब से अन्त में नष्ट होता है। अतएव सूत्रकार कहते हैं. कि "लोहो हो जस्स न कि चिणाइ ' अर्थात् जिसने लोभ रूपी अंतिम योद्धा को परास्त कर दिया, उसे फिर किसी को परास्त करने के लिए शक्ति नहीं लगानी पड़ती। लोभ-विजयी महात्मा शीघ्र ही बारहवें गुणस्थान में पहुंचकर अप्रतिपाती
और पूर्ण वीतराग बन जाते हैं । उस समय कर्म-कृत कोई भी विकार उन्हें स्पर्श नहीं करता । बारहवें गुणस्थान में भी वे महात्मा अन्तर्मुहर्त ही ठहरते हैं और फिर तेरहवें गुणस्थान में पहुंचते ही जीवन्मुक्त, सशरीर परमात्मा, अर्हन् , सर्वज्ञ और ' सर्वदर्शी बन कर अन्त में सिद्ध-बुद्ध और मुक्त हो जाते हैं।
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निर्ग्रन्थ-प्रवचन-द्वितीय अध्याय
समाप्त