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धर्म स्वरूप वईन इस प्रकार भव भ्रमण करते-करते अनन्तानन्त पुण्य का संचय होने पर, बड़ी ही कठिनाई से मनुष्य भव की प्राप्ति होती है। सव चौरासी लाख योनियां और एक करोड़ साढ़े सत्तानवे लाख करोड़ कुल कोटियां हैं। इनमें से चौदह लाख जीव की योनियों को और बारह लाख करोड़ कुल कोटियों को, जो कि मनुष्य हैं, छोड़कर शेष योनियों और कुल कोटियों को ग्रहण करने से बचकर मनुष्य योनि को पा लेना कितना बड़ा सौभाग्य है ! कितने जबर्दस्त पुण्य का फल है !
मगर मनुष्य-भव मिल जाने से ही विशेष लाभ नहीं होता। क्योंकि असं. ख्यात मनुष्य ऐसे हैं जो सम्मूर्छिय होते हैं और पर्याप्त अवस्था प्राप्त होने से पहले ही मत्य को प्राप्त हो जाते हैं । वे मनुष्य अवश्य कहलाते हैं वि.न्तु वास्तविक मनुष्यता उनमें नहीं होती। अतएव मनुष्य हो जाने पर गर्भज मनुध्य होना और भी कठिन है. जिसके बिना मोक्षमार्ग की आराधना नहीं होती । सब प्रकार के जीवों में गर्भज मनुष्य ही सब से थोड़े हैं । तिर्यश्च अनंत हैं, नारकी असंख्यात हैं, देव भी असंख्यात हैं, पर गर्भज मनुष्य संख्यात ही हैं।
इसी लिए सूत्रकार ने कहा है कि अानुपूर्वी से-कम से शुद्धता प्राप्त करने पर जीव मनुष्यता प्राप्त करता है । भूल:-वेमायाहिं सिक्खाहिं, जे नरा गिहिसुव्वया ।
उविति माणुसं जोणिं, कम्मसच्चा हु पाणिणो ॥२॥ छायाः-विमानामि: शिक्षाभिः, ये न। गृहि-सुव्रताः । . उपयान्ति मानुष्यं योनि, कर्मसत्या हि प्राणिनः ॥२॥ " शब्दार्थ:-जो मनुष्य विविध प्रकार की शिक्षाओं के साथ गृहस्थ के सुव्रतों का आचरण करते हैं, वे फिर मनुष्य योनि को प्राप्त होते हैं।
भाष्यः-पहले मनुष्य भव की दुर्लभता का प्रतिपादन किया है। मनुष्य भक एक बार प्राप्त हो जाने पर भी मिथ्यात्व अव्रत आदि का श्राचरण करने से, मृत्य के पश्चात जीव नरक में चला जाता है । अतएव नरक श्रादि योनियों से बचकर फिर मनुष्य भव किस प्रकार पाया जा सकता है, यह यहां बताया गया है।
मनुष्य भव पुनः प्राप्त करने का साधन सूत्रकार ने शिक्षाओं के साथ सुव्रत का पालन करना निरुपण किया है।
शंका-शास्त्रों में व्रतों का पालन देव गति का कारण बतलाया गया है। सराग संयम, संयमासंयम (अणुव्रत ) अकाम निर्जरा और चाल तप, ये सब देव श्रायु के वंध के कारण हैं । इसी निर्ग्रन्थ प्रवचन के सातवें अध्याय की सातवीं गाथा में कहा है-.. .
एवं सिक्खासमावरणे गिहिवासे वि सुव्वस । .. .मुच्चई छविपवाओ, गच्छे जक्खस लोगयं ॥