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चटू द्रव्य निरूपणं मात्र शुभ परिणाम रखने से अनन्तानन्त शुभ कर्म - परमाणुओं का बंध हो जाता 1 और एक समय मात्र अशुभ भाव श्राने से श्रनन्तानन्त पाप कर्मों का बंध होता है । यह जान कर सदा सावधान रहना चाहिए ।
छठा आस्रव तत्व है। कर्म का आत्मा में थाना शास्त्र कहलाता है । अर्थात् योग रूपी नाली से, आत्मा रूपी तालाब में, कर्म रूपी जल का जो प्रवाह आता है। उसे श्रास्त्र कहते हैं ।
श्रस्रव संसार - प्रयण का प्रधान कारण है, अतएव इसका स्वरूप और इसके कारणों को जान कर उन कारणों का परित्याग करना मोक्षार्थी का कर्त्तव्य है । आस्रव के सूल दो भेद हैं- शुभ श्रस्रव और अशुभ श्रस्रव । अथवा साव- शास्त्र और द्रव्य - श्रास्रव । शुभ प्रसव असातावेदनीय आदि अशुभ प्रकृतियों के बंध का हेतु है । जीव का शुभ या अशुभ परिणाम - जिससे श्रास्रव होता है - भाव - प्रात्रव कह लाता है और कर्म - परमाणुओं का आना द्रव्य - श्रास्रव कहलाता हैं ।
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पांच इन्द्रियों, चार कषाय, पांच अन्नत, तीन योग और पच्चीस क्रियाएँ यह बयालीस श्चास्त्रव के भेद हैं । इन्द्रियों का निरूपण किया जा चुका हैं, कषायों का श्रागे किया जायगा | हिंसा, मृषा वाद, चौर्य, श्रब्रह्म और परिग्रह - यह पांच व्रत हैं। योग के तीन भेद हैं
( १ ) काययोग ( २ ) वचनयोग ( ३ ) मनोयोग ।
( १ ) काय योग - वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम होने पर प्रौदारिक आदि सात प्रकार की काय -वर्गणा में से किसी भी एक के आलंबन से, आत्मा के प्रदेशों में होने वाला परिस्पन्दन काय योग है ।
( २ ) बच्चन योग - शरीर नाम कर्योदय से प्राप्त वचन वर्गणा का श्रावन होने पर, वीर्यान्तराय आदि कर्मों के क्षयोपशम से होने वाली आन्तरिक वचन लब्धि का सन्निधान होने पर, वचन रूप परिणमन के उन्मुख आत्मा के परिस्वन्दन को वचन योग कहते हैं ।
( ३ ) मनोयोग – वीर्यान्तराय तथा नो-इन्द्रियावरण कर्म के क्षयोपसम रूप मनोलब्धि का सन्निधान होने पर, और मनोवर्गणा रूप वाह्य निमित्त के होने पर मन परिणाम के उन्मुख श्रात्मा के प्रदेशों के परिस्पन्दन को मनोयोग कहते हैं ।
केवली भगवान् सयोगी होते हैं किन्तु वीर्यान्तराय श्रादि का क्षयोपक्षय उनके नहीं होता ( क्षय होता है ) वहां श्राल- प्रदेशों के परिस्पन्द को ही योग समझना चाहिए | क्योंकि सामान्य अपेक्षा से मन, वचन और काय के व्यापार को ही योग कहते हैं ।
क्रियाओं के पचीस भेद इस प्रकार हैं:
[१] कायिकी क्रिया - असावधानी से शरीर का व्यापार करना ।
[२] श्राधिकरशिकी क्रिया-शस्त्र आदि का प्रयोग करने से लगने वाली ।