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द्वितीय अध्याय ,
। १०५ ] वही नाम कहते हैं -जैसे समचतुरस्त्रसंस्थान नाम कर्म आदि आदि। ..
(E) वर्ण नाम कर्म--जिसके उदयसे शरीर में गोरा काला आदि वर्ण होता है। उसके पांच भेद हैं--कृष्ण वर्ण नाम, नील वर्ण नाम, रक्त वर्ण नाम, पीतवर्ण नाम और सित वर्ण नाम।
(१०) गंध नाम कर्म-जिसके उदय से शरीर में सुगंध वा दुर्गध हो । उसके दो भेद हैं-सुरभि गंध नाम और दुरभिगंध नाम ।
(११) रसनाम कर्म - जिसके उदय से शरीर में किसी प्रकार का रस हो। उसके पांच भेद हैं-तिक्त नाम, कटु नाम, कषाय नाम, आम्ल नाम, और मधुर नाम कर्म।
(१२) स्पर्श नाम कर्म-जिस कर्म के उदय से शरीर में कोई स्पर्श हो वह स्पर्श नाम कर्म है । उसके पाठ भेद हैं-गुरुनाम, लघु नाम, मृदु नाम, कर्कश नाम, शीत नाम, उष्ण नाम, स्निग्ध नाम, रूक्ष नाम कर्म ।
(१३) श्रानुपूर्वी नाम कर्म-एक शरीर का त्याग करने के पश्चात् नवीन शरीर धारण करने के लिए जीव अपने नियत स्थान पर जिस कर्म के उदय से पहुंचता है वह श्र नुपूर्वी नाम कर्म है । गति नाम कर्म के चार भेदों के समान इसके भी चार
(१४) विहायो गति नाम-जिस कर्म के उदय से जीव की चाल अच्छी या चुरी होती है । इसके दो भेद-शुभविहायोगति और अशुभविहायोगति नाम कर्म।।
नाम कर्म की इन प्रकृतियों को ध्यान पूर्वक पढ़ा जाय तो मालूम होगा कि नाम कर्म का कार्य शरीर की रचना करना, उसकी विभिन्न प्राकृतियां बनाना, नवीन जन्म धारण करने के स्थानपर पहुंचाना,अस या स्थावर रूप प्रदान करना, शरीर में किसी प्रकार का रंग, गंध, रस और स्पर्श बनाना, सुन्दर-असुन्दर स्वर उत्पन्न करना,
आदि-आदि है। इसका कार्य बहुत विस्तृत हैं और इसी कारण इसकी प्रकृतियों की संख्या सभी कर्मों से अधिक है।
सूत्रकार ने शुभ और अशुभ नामकर्म के बहुत-बहुत भेद बताये हैं तो इस प्रकार समभाना चाहिए। जिस प्रकृति का फल प्राणी को इट है, जिसकी प्राप्ति से उसे संतोप होता है वह शुभ नाम कर्म है, और जिस प्रकृति का फल जीव को अनिष्ट है, वह प्रकृति अशुभ है। पूर्वोक्त प्रकृतियों में से ( १ ) मनुष्यगति । २) मनुष्य गति की प्रानुपूर्वी (३) देव गति (४ देवगति की आनुपूर्वी ( ५ ) पंचेन्द्रिय जाति (१-२०) पाँच शरीर, (११-१५) पाँच बंधन, ( १५-२० । पाँच संघात, (२०-२३) तीन अंगोपांग, (२४) इस वर्ण ( २५) इष्ट गंध ( २६ ) इष्ट रस (२७) इट स्पर्श (२८) समचतुरस्त्र संस्थान (२६) वजऋषभनारात्र संहनन (३०) प्रशस्तविहायोगति (३१) पराघात (१२) उच्दास ( ३३ ) आतप (३४) उद्योत (३५)
गुरूलघु ( ३६) तीर्थकर नाम कर्म (३७) निर्माण (३८) अस (३६) बादर (४०) पर्याप्त (५१) प्रत्येक (४२) स्थिर (४३) शुभ (२४) सुभग (४५)