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द्वितीय अध्याय
पावरणिज्जाण दुण्हं पि, वेयणिज्जे तहेव य । अंतराये य कम्मंमि, ठिई एसा विश्राहिया ॥१७॥ छाया-उदधिसदृङ्नाम्नां, त्रिंशतकोटीकोट्यः ।
उत्कृष्टा स्थितिर्भवति, अन्तर्मुहत्तं जघन्यका ॥१६॥ अ वरण यो योरपि, वेदनीये तथैव च ।
अन्तराये च कर्मणि, स्थितिरेषा व्याहृता ॥१७ शब्दार्थः-दोनों आवरणों की अर्थात् ज्ञानावरण और दर्शनावरण की तथा वेदनीय कर्म की और इसी प्रकार अन्तराय कर्म की अधिक से अधिक स्थिति तेतील कोड़ाकोड़ी सागरोपम की कही गई है और कम से कम स्थिति अन्तर्मुहूर्त की कही
भाष्यः आठों कर्मों के भेदों का निरूपण करने के पश्चात् उनकी उत्कृष्ट अर्थात् अधिक से अधिक और जघन्य अर्थात् कम से कम स्थिति बतलाई गई है। तात्पर्य यह हैं कि कौन-सी कर्म प्रकृती जीव के साथ बद्ध हो जाने पर अधिक से अधिक कम से कम कितने समय तक बँधी रहती है, इस विषय का अर्थात् स्थितिबन्ध का यहाँ निरूपण किया गया है।
जीव के साथ कर्म का जो बंध होता है वह सदा के लिए नहीं होता। दोनों का संबंध लयोग संबंध है। यह बात स्थितिबंध की प्ररूपणा से स्पष्ट हो जाती है।
यहाँ ज्ञानावर ण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तराय कर्मों की दोनों प्रकार की स्थिति बताई है । उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम की होती है। एक करोड़ से एक करोड़ का गुणा करने पर जो गुणनफल रूप राशी उत्पन्न होती है वह कोड़ा कोदी कहलाती है। ऐसे तीस कोड़ा कोड़ी सागरोपम की स्थिति है। अर्थात् तीस करोड़ सागरोपम से तीस करोड़ सागरोपम का गुणा करने पर जो राशी हो उतने सागरोपम तक यह चारों कर्म आत्मा के साथ बंधे रह सकते हैं। इतने समय के पश्चात् उनकी निर्जरा हो जाती है । इससे यह नहीं समझ लेना चाहिए कि तील कोड़ा कोड़ी सागरोपम के पश्चात् जीव चार कर्मों से युक्त हो जाता है। क्योंकि कम का बंध प्रतिज्ञण होता रहता है, इसलिए पुगने कर्म अपनी स्थिति पूर्ण करके खिरते जाते हैं तथापि बाद में बँधे हुए कर्म वाद में भी विद्यमान रहते हैं।
'उदहीसरिसनामाणं' का अर्थ है-उदधि (समुद्र ) के सदृश जिसका नाम है अथात् सागर । 'सागर' एक अलौकिक गणित सम्बन्धी पारिभाषिक संज्ञा है। वर एक मस्या-विशेष की वाचक है । वह संख्या लौकिक संख्या से बहुत अधिक होने के कारण गणित शास्त्र में प्रसिद्ध अकों द्वारा नहीं बतलाई जा सकती। उसे बताने के लिए 'उपमा' से काम लेना पड़ता है । अतएव सागर को 'सागरोपम' भी कहते हैं। सागरोपम का परिमाण यह है: