________________
- कर्म निरूपण
-
-
[ १२० ]
स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते ।
स्वयं भ्रमति संसारे, स्वयं मोक्षञ्च गच्छति ॥ अर्थात:-आत्मा स्वयं-अकेला ही कर्म करता है और अकेला ही उस कर्म का फल भोगता है । अकेला ही संसार में भ्रमण करता है और मोक्ष प्राप्त करता है। ..
जब बन्धु-वान्धव सांसारिक पदार्थों में हिस्सा बँटा लेते हैं तब वे दुःख में हिस्सा क्यों नहीं बँटा सकते ? इस प्रश्न का समाधान यह है कि श्रात्मा का संसार के किसी भी जड़ या चतन पदार्थ के साथ वास्तविक सम्बन्ध नहीं है । श्रात्मा एकाकी है-अद्वितीय है। उसका चेतनामय स्वभाव ही अपना है और स्वभाव के सिवाय अन्य सय विभाव है। विभाव पर-वस्तु है और पर-वस्तु का संयोग विनश्वर है-सदा काल स्थायी नहीं है। उस संयोग को मोही जीव नित्य-सा मान बैठता है। यह उसका घोर अज्ञान है और यह अज्ञान ही दुःखों का मूल है। क्योंकि पर वस्तु का संयोग विनश्वर होने के कारण सदा टिक नहीं सकता । उसका अन्त अवश्य होता है और मोही जीव उसके अन्त से दुःखी होता है । फिर भी संयोग अपने स्वभाव के अनुसार नष्ट हुए बिना रह नहीं सकता। यही कारण है कि श्रायु पूर्ण होने पर यह शरीर भी जीव से अलग हो जाता है। ऐसी दशा में भला अन्य पदार्थ कैसे साथ दे सकते हैं ? प्राचार्य श्रमितगति कहते हैं
यस्यास्ति नैक्यं वपुषाऽपि सार्धम् , तस्यास्ति किं पुत्रकलत्रमित्र ? पृथकृते. चर्मणि रोपकूपाः, कुतो हि तिष्ठन्ति शरीरमध्ये ? ॥
अर्थात् शरीर के साथ भी जिसकी एकता नहीं है, उसकी पुत्र, पत्नी और मित्रों के साथ क्या कभी एकता होना संभव है ? शरीर में से यदि चमड़ी को अलग कर दिया जाय तो उस पर लगे हुए रोम-बाल क्या शरीर में टिके रह सकते हैं ? कदापि नहीं।
तात्पर्य यह है कि जैसे चमड़ी पर श्राधित रोम, चमड़ी हट जाने पर शरीर में नहीं रह सकते इसी प्रकार शरीर के जुदा हो जाने पर पुत्र-कलत्र श्रादि के साथ भी संयोग स्थिर नहीं रह सकता, क्योंकि यह पुत्र है, यह पिता है, यह पत्नी है, यह पति है, इत्यादि सम्बन्ध शरीर पर ही आश्रित है । यह सब सांसारिक सम्बन्ध शरीर के निमित्त से ही उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार जब भाई-बन्द का संयोग शरीर पर श्राथित है और इस जन्म का शरीर इसी जगह रह जाता है-वह साथ में जाता नहीं है, तब पुत्र-कलन श्रादि दुःख में भाग चटाने के लिए कैसे साथ जा सकेंगे ? इसीलिए भगवान् ने स्वयं यह उपदेश दिया है
अभागमितमि वा दुहे, अहवा उक्कमिते भवतिए।
पगस्स गती य यागती, विदुमंता सरणं न मनाई . अर्थात् जब प्राणी के ऊपर दुःख पाता है तब वह उसे अकेला ही भोगता है. तथा उपक्रम के कारण भूत विष शस्त्र प्रादि से श्रायु नष्ट होने पर अथवा यथाकाल