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कर्म निरूपण
इस प्रकार कर्म में और मोह में परस्पर प्रभयमुख कार्य-कारण भाव सिद्ध होता है। इस समय जो मोहनीय कर्म का उदय होता है उससे अनुकूल समझने वाले पदार्थों पर राग-भाव उत्पन्न होता है और प्रतिकूल प्रतीत होने वाले पदार्थों पर हैप-भाव उत्पन्न होता है । यह दोनों प्रकार के भाव कपाय रूप होने के कारण कर्मबंध के कारण हैं अतः इनसे मोहनीय कर्म का बंध होता है । इस प्रकार भाव कर्म से द्रव्य कर्म उत्पन्न होता है और द्रव्य कर्म उदय में आकर भाव कर्म का कारण हो जाता है । कार्य-कारण का प्रवाह अनादिकाल से चला आ रहा है । इसी प्रवाह में संसारी जीव बहता जाता है और उसे कहीं ठहरने का ठिकाना नहीं मिलता । इसी कारण सूत्रकार ने कहा है- 'कम्मं च जाईमरणस्स मूलं' अर्थात् जन्म और मरण का मूल कारण कर्म ही है ।
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इन्द्रियों और शरीर आदि के संयोग को जन्म कहते हैं और इनके वियोग को मृत्यु कहते हैं । श्रात्मा स्वरूप से श्रमूर्त्तिक है, वह पांचों इन्द्रियों से भिन्न हैं. मन, वचन और काय रूप तीनों बलों से सर्वथा भिन्न है, श्वासोच्छ्लास सक तथा श्रायु से भी सर्वथा भिन्न है । अतएव शुद्ध नय की अपेक्षा आत्मा इन प्राणों से अतीत श्ररूपी, चेतनामयी कौर अमृत तत्त्व है । जन्म-मरण उसे स्पर्श भी नहीं कर सकते | जन्म मरण से अछूता होने के कारण दुःखों से भी वह सर्वथा मुक्त हैं । श्रनन्त सुख श्रात्मा का स्वरूप है और जहां अनन्त सुख का सागर भरा है वहां दुःख की पहुंच नहीं हो सकती । इस कारण आत्मा अपने स्वरूप से दुःखमय नहीं है । वह शरीर है । उसका किसी भी अचेतन या चेतन पदार्थ से कुछ भी सरोकार नहीं है । वह अन्य पदार्थों से संबद्ध और श्रलिप्त है । परमानन्द और चित् चमत्कार श्रात्मा का स्वभाव है । किन्तु जैसे सोना स्वभावतः निर्मल और चमकीला होने पर भी खान मैं जब तक पड़ा रहता है तब तक वह अंतरंग और बहिरंग मल से मलीन बना रहता हैं और जब अग्नि में तपाया जाता है तब निर्मल हो जाता है, उसी प्रकार आत्मा स्वभाव से अमर होने पर भी जब तक कर्म के वशीभूत हो रहा हैं तब तक जन्ममरण के दुःखों को भोगता हैं और अनेक प्रकार के विकारों से युक्त वन रहा है, किन्तु जब तपस्या की श्राग में उसे तपाया जाता है तब उसके समस्त विकार - द्रव्य कर्म और भाव कर्म-भस्म हो जाते हैं और श्रात्मा श्रपने स्वाभाविक रूप में श्राकर चमकने लगता है - श्रर्थात् अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन की लौकिक और श्रद्भुत ज्योतियों से प्रकाशमान हो जाता है। उस समय वह जन्म-मरण के दुःखों से. छूट कर अमर बन जाता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि कर्म का विनाश होने पर दुःख का स्पर्श नहीं होता ।
दुःख का कारण राग-द्वेष रूप विभाव परिणति हैं । किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि जीव की राम श्रादि रूप विभाव परिणति स्वयं नहीं होती है । यदि रागद्वेष श्रादि विभाव स्वतः उत्पन्न हो तो वे ज्ञान दर्शन के समान ही स्वभाव हो जाएंगे, और स्वभाव होने के कारण उन्हें अविनाशी मानना होगा तथा मुक्त दशा में भी उन की सत्ता स्वीकार करनी पड़ेगी । श्रतएव राग-द्वेष आदि श्रीपाधिक है
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