________________
द्वितीय अध्याय
[ ११७ ] · पर कर्मों के द्वारा जो दण्ड मिलता है वह धार्मिक आध्यात्मिक अपराध के रूप में होता है। दोनों दण्डौ में यह विशेषता है। .. जैसे चतुर.चोर चोरी करके साफ बच निकलता है, उसे राज दंड का शिकार नहीं होना पड़ता, उसी प्रकार किये हुए पापों को कर्म-दंड से भी क्या कोई बच सकता है ? इस शंका का समाधान करने के लिए सूत्रकार कहते हैं-'कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि' अर्थात् कोई प्रवीण पापाचारी पुलिस की आँखों में भले ही धूल झोंक कर राज-दंड से बच जाए पर वह कर्म-दंड से कदापि मुक्त नहीं हो सकता प्रत्येक कर्म का फल कर्ता को अवश्यमेव भुगतना ही पड़ता है। कर्म अमोघ हैं-चे कभी निष्फल नहीं हो सकते।
एक उदहरण से पाप के फल का स्पष्टीकारण किया जाता है-एक बार कई चोर मिलकर चोरी करने जा रहे थे। उनमें एक बढ़ई (सुतार ) भी शामिल हो गया चोर किसी नगर में एक धनाढ्य सेठ के घर पहुंचे और उन्होंने सेंध लगाई । सैंध लगाते-लगाते दीवाल में कार का एक पटिया दिख पड़ा। चोरों ने सुतार से कहाभाई, अब तुम्हारी वारी है । इस पटिया को काटना तुम्हारा काम है। सुतार ने अपने औजार सँभाले और पटिया काटने लगा। उसने अपनी कारीगरी दिखाने के लिए सँध के छेदों में चारों और तीखे-खे कंगूरे बना दिये । इसके बाद वह चोरी करने के लिए मकान में घुसा । ज्योंही वह घुस रहा था, त्योंही मकान मालिक ने उसका पैर पकड़ लिया। सुतार चिल्लाया-दौड़ो-दौड़ो, वचाओ-बचायो । उसे एक चालाकी सूझी। वह कहने लगा-मकान-मालिक, श्रो मकान मालिक ! मेरे पैर छुड़ायो।' पर होनहार टलती नहीं । चोरों ने ज्यों ही यह सुना त्यों ही वे झपटे और उसका सिर पकड़ कर खींचने लगे। बेचारा सुतार मुसीबत में फंस गया । भीतर और बाहर-दोनों ओर जोर की खींचातानी प्रारम्भ हो गई। अन्त में उसने जैसा किया था वैसा ही भोग भोगा। अपने बनाये हुए कंगूरों से ही उसके प्राणों का अन्त हो गया। . . .
. . आत्मा के लिए यही उदाहरण लागू होता है। श्रात्मा अपने ही अशुभ कर्मों के द्वारा इसलोक और परलोक में घोर कष्टों को सहन करता है । ऐसा समझ कर विवेकीज़नों को भली भांति सोच विचार कर, अपनी मनोवृत्ति को और अब की जाने वाली क्रिया को धर्म की कसौटी पर कस लेना चाहिए। जो किया धर्मानुकूल हो उसी को विधिपूर्वक करना चाहिए और प्रयत्नपूर्वक पाप कर्मों से बच कर प्रात्मश्रेय का साधन करना चाहिए । जो सत्पुरुष इस प्रकार विवेकपूर्वक प्रवृत्ति करते हैं वे अक्षय आनन्द के भागी होते हैं। वे कर्मों से सर्वथा छुटकारा पा जाते हैं और तर । कर्म-दण्ड उनके समीप भी नहीं फटक सकता। मूल:-संसारमावराण परस्स अट्टा, साहारणं जंच करेइ कम्म।
कम्मरस ते तस्स उ वेयकाले, न बंधवा बंधवयं उविति २३