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. .. कर्म निरूपण का, रूप का, लाभ का और ऐश्वर्य का अभिमान न करने से उच्च गौत्र का बंध होता .... है । तथा विनम्रता रखने से, दूसरों की प्रशंसा और अपने दोषों की निन्दा करने से अपने दोषों को और दूसरों के गुणों को प्रकाशित करने से भी उच्च गोत्र कर्म बंधता ...
जाति, कुल, वल, विद्वत्ता, तप, लाभ, रूप और ऐश्वर्य का घमंड करने से. तथा अपने मुंह अपनी प्रशंसा करने, पर निन्दा करने, दूसरे के सदगुणों को छिपान से और अपने असत् [ अविद्यमान | गुणों को प्रकट करने से, नीच गोत्र कर्म का बंध होता है। मूलः-दाणे लाभे य भोगेय, उपभोगे वीरिये तहा।
पंचविहंतराय, समासेण वियाहियं ॥ १५ ॥ छाया:-दाने लाक्षे च भोगे च, उपभोगे वीर्य तथा।
पञ्चविधमन्त राय, समासेन व्याख्यातम् ॥ १५ ॥ शब्दार्थः - अन्तराय कर्म संक्षेप से पांच प्रकार का कहा गया है- (१) दानान्तराय (२) लामान्तराय (३) भोगान्तराय (४) उपभोगान्तराय और (५) वीर्यान्तराय।
भाष्य-सात कर्मों के विवेचन के पश्चात् अन्तिम अन्तरगय कर्म का विवेचन यहां किया गया है। जिस कर्म के उदय से इष्ट वस्तु की प्राप्ति में बाधा. उपस्थित होती है वह अन्तराय कर्म कहलाता है। उसके पांच भेद हैं-[१] दानान्तराय २० लाभान्तराय ३) भोगान्ताय [५] उपभागान्तराय [५ वीर्यान्तराय । इन पांचा का स्वरूप इस प्रकार है:
[१. दानान्तराय-दान देने योग्य वस्तु मौजूद हो, दान के श्रेष्ठ फल का भी ज्ञान हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से दान न दिया जा सके, वह दानान्तराय कम
[२] लाभान्तराय-उदारचित दाता हो, दान देने योग्य वस्तु भी हो, फिर भी जिस कर्म के उदय से लाभ न हो वह लाभान्तराय कर्म है । लाभ की इच्छा हो, लाभ
लिए प्रयत्न भी किया जाय, फिर भी जिसके उदय ल लाभ न हो सके वह लाभातराय कर्म है।
[३] भोगान्तराय-भोगों से विरक्ति न हुई हो और भोग की सामग्री मौजूद हो फिर भी जिस कर्म के उदय से जीव भोग न भोग सके उसे भोगान्तराय कम
[१] उपभोनान्तराय- उपभोग की सामग्री के विद्यमान रहने पर भी श्रीर उपभीम की इच्छा होने पर भी-जिप्त कर्म के उदय से पदार्थों का उपभोग न किया आ सके वह उपभोगान्तराय फर्म है।
जो पदार्थ सिर्फ एक बार भोगे जाते हैं उन्हें भोग कहत है, जैले भोजन, फल,