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द्वितीय अध्याय
[ ८७ ] है उसी प्रकार यह कर्म विविध प्रकार के कुलों में जीवों को जन्माता है। . (८) शान्तराय-जो कर्म दान, लाभ, भोग, उपभोग और शक्ति की प्राप्ति में विघ्न डालता है वह अन्तराय कर्म है । जैसे खंजाची लाभ आदि में विघ्न डाल देता है।
जिन कार्मण जाति के पुद्गलों का कर्म रूप में परिणमन होता है उनमें मूल रूप से ज्ञानावरण, दर्शनावरण आदि का भेद नहीं होता। जीव एक ही समय में, एक ही परिणाम से जिन कार्मण पुद्गलों को ग्रहण करता है, वही पुद्गल ज्ञानावरण आदि विविध रूपों में पलट जाता है। जैसे भोजन के मूल पदार्थों में रस, रक्त, मांस मादि रूप में परिणत होने वाले अंश अलग-अलग नहीं होते, फिर भी प्रत्येक कौर का रस, रक्त आदि रूप में नाना प्रकार का परिणमन हो जाता है। उसी प्रकार ग्रहण किये हुए कार्मण पुद्गलों का तरह-तरह का परिणमन हो जाता है। भेद केवल यही . है कि भोज्य पदार्थ का रस, रक्त श्रादि रूप में क्रम से परिणमन होता है और ज्ञानाबरण श्रादि का भेद एक ही साथ हो जाता है। भोजन का परिणमन सात धातुओं के रूप में होता है और कार्मण पुद्गलों का भी प्रायः सात प्रकार का ही परिणमन होता है। कभी-कभी श्रायु कर्म के रूप में आठ प्रकार का परिणमन होता है।
उक्त बाठो कर्मों के उनकी विभिन्न शक्तियों के आधार पर कई तरह से भेद बतलाये गये हैं । जैसे-(१) घाति कर्म और (२) अघाति कर्म । जो कर्म जीव के ज्ञान, दर्शन शादि अनुजीवी-भाव रूप गुणों का विधान करते हैं चे घाति कर्म कहलाते हैं । घाति कर्म चार हैं-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय । . जिनमें धनुर्जावी गुणों को घातने का सम्मर्थ्य नहीं है वे अघाति कर्म कहलाते हैं । वे भी चार हैं-वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म ।
इसी प्रकार कोई कर्म ऐसा होता है जिसका साक्षात प्रभाव जीव पर पड़ता है उसे जीव विपाकी कर्म कहते हैं । जैसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण प्रादि । कोई कर्म ऐसा होता है जिसका पुद्गल-शरीर-पर प्रभाव पड़ता है, उसे पुद्गल विपाकी फर्म कहते हैं । जैसे-वर्ण नाम कर्म इत्यादि । किसी कर्स का असर भव में होता है वह भवविपाकी है । जैसे श्रायु कर्म । कोई कर्म अमुफ क्षेत्रवती जीव पर अपना प्रभाव डालता है उसे क्षेत्रविपाकी कहते हैं । जैसे--श्रानुपूर्वी नास कर्म । यह आनुपूर्वी नाम कर्म उसी समय अपना प्रभाव डालता है जब जर्जाव एक शरीर को त्यागकरके नवीन शरीर ग्रहण करने के लिए शान्यत्र जाता है। - सूत्रकार ने सूल में समासो' पद दिया है । उसका अर्थ है-संक्षेप की अपेक्षा । आठ कमों का विभाग संक्षेप की अपेक्षा से वि.या गया है। विस्तार की अपेक्षा और भी अधिक भेद होते हैं । उन भेदों को उत्तर प्रकृतियां कहते हैं। उत्तर प्रकृतियां भी संक्षेप से और विस्तार से-दो प्रकार की हैं। विस्तार से उनके
संध्यात भेद है और संक्षेप से एक सौ अड़तालीस भेद हैं। इन भेदों का वर्णन स्वयं सूत्रकार श्रागे करेंगे।