________________
:
द्वितीय अध्याय
[ ६३ ]
प्रयत्न करना चाहिए । दुःख से बचने का उपाय असातावेदनीय कर्म के बंध से बचना हैं । जिन्हें असातावेदनीय का बंध न होगा व दुःखानुभव से बच सकते हैं । श्रतएव जिन कारणों से साता का बंध होता है उनका परित्याग कर खाता के बंध के निमित्त जुटाने चाहिए | सातावन्दनीय के बंध के कारण इस प्रकार हैं- एकेन्द्रिय, डीन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों को- किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार से कष्ट न पहुंचाना, उन्हें क़ुराना नहीं, परिताप न पहुंचाना, अश्रुपात न कराना, लात-घूंसा आदि से न पीटना, अर्थात् उन्हें किसी प्रकार असाता का अनुभव अपने निमित्त से न होने देना । असातावेदनीय कर्म इनसे विपरीत कारणों से होता है अर्थात् किसी भी प्राणी को दुःख देने से, शोक पहुंचाने से, संताप देने से, गने से, श्रुपात कराने से, पीटने प्रादि से श्रसाता का बंध होता है ।
अन्य प्राणियों को दुःख - शोक श्रादि पहुंचाना तो असातावेदनीय के बंध का कारण हैं ही, साथ ही स्वयं दुःख करना, शोक करना, संतप्त होना, भूरना, अश्रुपात करना और अपना सिर और छाती पीटना यादि भी असातावेदनीय के बंध का कारण है | श्रतएव धन-सम्पत्ति, स्वजन यादि का विछोह हो जाने पर शोक करना, संताप करना, रुदन करना ग्रादि असातावेदनीय के बंध का कारण समझकर विवेकीजनों को उसका त्याग कर देना चाहिए । तपस्या आदि के द्वारा जो कष्ट सहन किया जाता है, वह कषाय पूर्वक न होने से अलाता के बंध का कारण नहीं, अपितु निर्जरा का उत्तम उपाय है ।
शरीर में अनेक प्रकार के रोगों की उत्पत्ति होना, मानसिक चिन्ता होना आदि असातावेदनीय के फल हैं और नीरोग शरीर होना, चिन्ताएँ न होना, धन-धान्य श्रादि प्रिय पदार्थों का संयोग मिलना- सांसारिक सुख की सामग्री प्राप्त होना सातावेदनीय कर्म का फल है ।
मूल:- मोहणिजं पि दुविहं, दंसणे चरणे तहा । दंसणे तिविहं बुत्तं चरणे दुविहं भवे ॥ ८ ॥
छाया:-- मोहनीयमपि द्विविधं, दर्शने चरणे तथा ।
दर्शने त्रिविधमुक्कं चरणं द्विविधं भवेत् ॥ ८ ॥
शब्दार्थ : - मोहनीय कर्म भी दो प्रकार का है - ( १ ) दर्शनमोहनीय और ( २ ) चारित्रमोहनीय || दर्शनमोहनीय तीन प्रकार का कहा गया है और चारित्रमोहनीय दो अकार का है ।
भाष्य-- वेदनीय कर्म के निरूपण के पश्चात् मोहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों का निर्देश यहां किया गया 1
आत्मा को मोहित करने वाला अर्थात् सत् असत् के विवेक को नष्ट कर देने चाला मोहनीय कर्म अत्यन्त प्रवल है । संसार को यदि चक्र कहा जाय तो मोहनीय
75