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द्वितीय अध्याय मोहध्वान्तापनेकदोपजन मे भलितुं दीपका
. वुत्कीर्णाविव कीलिताविव हृदि स्पृताविवेन्द्रार्चितौ। श्राश्लिष्टाविक विस्वित्ताविव सदा पादौ निखाताविव,
स्थेयातां लिखिता विवाथदहनौ बद्धाविवाहस्तव ॥ अर्थात्:- हे अर्हन्तदेव ! अनेक दोषों को उत्पन्न करने वाले सोह रूपी अंधकार को दूर करने के लिए दीपक के लमान, इन्द्र-बंध, पापों को भस्म करने वाले आपके दोनों चरण मेरे हृदय में इस प्रकार स्थिर हो कर विद्यमान रहें, मानों वे हृदय में ही अंकित होगये हो, कील दिये गये हो, सी दिये गये हों, चस्पा होगये हो, प्रतिनिस्चित हो रहे हो, जड़ दिये गये हो, लिड दिये गये हो अथवा बंध गये हों।
वीतराग सगवान् की अलि ही मोह को जीतने का कार्यकारी उपाय है। उसके स्वरूप को भलीभांति समझकर उसका निवारण करने के लिए प्रयत्न करना ही मानव-जीवन की सर्वश्रेष्ठ लफलता है।
मोहनीय कर्मक्षेप्रकार का है-(१) दर्शन मोहनीय और (२) चारित्रमोदनश। दर्शनमोहनीय के तीन भेद हैं और बारिन मोहनीय के दो भेद हैं । इन अदों के नाम स्वयं सूत्रकार ने अगली गाथाओं में कहे हैं। यहां सिर्फ यह बता देना अावश्यक है कि दर्शनमोहीय के तीन भेदों का कथन उदय और सत्ता की अपेक्षा से सलमाना चालिए । बन्ध सीसपेक्षा एक ही भेद है। तात्पर्य यह है कि बंध के समग सामान्य रूप से एक दर्शनमोह ही बंधता है। बंध होने के पश्चात् शुद्ध, अर्ध-शुद्ध और श्राद्ध दलिकों की अपेक्षा ले वह तीन रूप में परिणत हो जाता है । दर्शनमोहर्नाय के तीन भेदों का अलग-अलग बंध नहीं होता है। जिल कर्म के उदय ले मिथ्या छान हा. सर्वश-काशित वस्तु के स्वरूप में रुचि और प्रतीति न हो, जिसनी दृष्टि मलीन हो
और इस कारण जो हित-अहित का ठीक-ठीक विचार करने में प्रासमर्थ हो, अथवा जिसके कारण प्रगाढ़ श्रद्धान न हो वह दर्शनमोहनीय कर्म कहलाता है। जो मोहनीय चारित्र का एक देश या पूर्णरूप से प्राचरण न करने दे वह चारित्र मोहनीय कर्म कहलाता है। मूलः-सम्मत्तं चैव मिच्छत्तं, सम्मामिच्छत्तमेव य ।
श्याोतिषिण पयडीयो, मोहणिजसस दंसणे ॥६॥ छाया:- सम्यक्रवं चैव मिथ्यात्वं, सम्यमिथ्यात्वमेव च ।
एताभित्र प्रकृतयः, मोहनीयस्य दर्शने ॥६॥ शव्दार्थः-मोहनीय कर्म की दर्शन प्रकृति में- यर्थात् दर्शनमोहनीय कर्म की तीन प्रकृतियां यह हैं - (१) सम्यक्त्वमोहनीय (२) मिथ्यात्वमोहनीय और (३) मिश्र या सम्यमिथ्यारवमाहनीय ।
भाष्यः-माहनीय कर्म की उत्तर प्रकृतियों के भेद बतलाने के बाद यहां