________________
द्वितीय अध्याय समूल विनाश कर दिया है जो कर्म रहित हो गये हैं उन्हें कर्म सहित समझना । जैसे मुक्त जीवों को सरज्ञ न मानना, ईश्वर को अवतार ले कर असुरों का घातक मानना श्रादि। . .. .. .
.. (१०) कर्म सहित पुरुषों को निष्कर्म मानना, जैसे राग-द्वेष के वश होकर शत्रुओं का संहार करने वाले को मुहरू परमात्मा समझना । ... वस्तु के स्वरूप को विपरीत समझना, वीतराग की वाणी में सन्दह करना, अकेले ज्ञान को या आली क्रिया को मोक्ष का कारण मानना, खरे-खोटे का विवेक न करके सब देवों को समान समझना, अनेक धर्मात्मक वस्तु के प्रतिपादक स्याद्वाद सिद्धान्त को अस्वीकार कर एकान्तवाद अंगीकार करना, इत्यादि सब मिथ्यात्व इन्हीं भेदों में समाविष्ट हो ज ते हैं । विवेकी जनों को यथोचित अन्तर्भाव कर लेना चाहिए। मोह के असंख्य रूप हैं, उन सब का विस्तृत विवेचन नहीं किया जा सकता । आभिअहिक, अनाभिग्रहिक अनाभोग आदि मिथ्यात्व के भेद भी इन्हीं में अन्तर्गत हैं।
सम्यक्त्व मोहनीय कर्म आंखों पर लगे हुए चश्मे के समान है। चश्मा यद्यपि आंखों का आच्छादक हैं फिर भी बह देखने में रुकावट नहीं डालता उसी प्रकार सम्यक्त्य मोहनीय, मोहनीय, का भेद होने पर भी सम्यक्त्व-यथार्थ श्रद्धा में बाधा . उपस्थित नहीं करता है। अतएव इस प्रकृति का सद्भाव होने पर भी चौथा गुणस्थान-अविरत सम्यग्दृष्टि अवस्था से लेकर अप्रमत्त संयत अवस्था तक होती है। मिथ्यात्व मोहनीय के उदय से जीव पहले.गुणस्थान में ही रहता है और मिश्र प्रकृति के उदय से तीसरे गुणस्थान में होता है। मूल-चरित्तमोहणं कम्म, दविहं तु विश्राहियं। .
कसायमोहणिज तु, नोकषायं तहेव य ।।१०।। छायाः-चारित्रमोहनं कर्म, द्विविध तु व्याहृतम् ।
कपायमोहनीयं तु. नोकपायं तथैव च ॥ १० ॥ . शब्दार्थः-चारित्रमोहनीय कर्म दो प्रकार का कहा गया है-(१) कपायमोहनीय और (२) नो कपायमोहनीय।
___ भाग्य-दर्शनमोह के भेदों का स्वरूप निरूपण करने के पश्चातू चारित्रमोहनीय कर्म की उत्तर प्ररूतियां यहां बताई गई हैं।
। जो कर्म चारित्र का विनाश करता है-सम्यक् चारित्र नहीं होने देता उसे चारित्र मोहनीय कर्म कहते हैं। उसके दो भेद हैं-(१) कषाय चारित्र मोहनीय और (२) नो कषाय चारित्र मोहनीय ।
- कार अर्थात् जन्म मरण रूप संसार की जिससे. श्राय अर्थात् प्राप्ति होती है उसे कषाय कहते हैं । काय के सोलह भेद जिनागम मै निरूपण किये गये हैं। वे इस प्रकार है-अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण कोध मान,