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. द्वितीय अध्याय
[ ] उसी प्रकार जो क्रोध शीघ्र ही शान्त हो जावे वह संज्वलन क्रोध है।
(२) प्रत्याख्यानावरण क्रोध-धूल में खींची हुई लकीर कुछ समय में हवा से मिटजाती है उसी प्रकार जो क्रोध थोड़े से उपाय से शान्त हो जायं वह प्रत्याख्याना. वरण क्रोध कहलाता है।
(३) अप्रत्याख्यानावरण क्रोध-पानी सूखने पर, मिट्टी फटने से तालाब आदि में जो दरार पड़जाती है वह आगे वर्षा होने पर मिटती है, उसी प्रकार जो क्रोध विशेष उपायों के श्रवलंबन से शान्त हो वह अप्रत्याख्यानावरण क्रोध है।
(४) अनन्तानुबंधी क्रोध-पर्वत के फटने से जो दरार होती है उसका मिटना दुःशक्य है इसी प्रकार जो क्रोध किसी भी उपाय से शान्त न हो उसे अनन्तानुबंधी क्रोध कहते हैं।
(५ सज्वलन मान-जैसे वेत अनायास ही न न जाता है उसी प्रकार जो मान अनायास ही मिट जाता है वह संज्वलन मान है।
(६) प्रत्याख्यानावरण मान-सूखी हुई लकड़ी जैसे कुछ समय में नमती है उसी प्रकार जो मान जरा कठिनाई से दूर हो वह प्रत्याख्यानावरण मान है। .
(७) अप्रत्याख्यानावरण मान-हड़ी को नमाने के लिए अत्यन्त परिश्रम करना होता है उसी प्रकार जो मान बड़ी कठिनाई से दूर होता है वह अप्रत्याख्यानावरण मान है।
() अनन्तानुबन्धी मान-पत्थर का स्तम्भ लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं मुड़ता, इसी प्रकार जो मान जीवन-पर्यन्त कभी दूर नहीं हो सकता वह अनन्तानुबंधी मान कहलाता है।
(E) संज्वलन माया-जिस माया अर्थात वक्रता को बांस के छिलके के समान अनायास ही सरलता-सीधेपन में परिणत किया जा सके उसे संज्वलन माया कहते हैं।
(१०) अप्रत्याख्यानावरण माया-चलते हुए बैल के पेशाब करने की लकीर रेदी होती है और वह टेढ़ापन धूलि वगैरह के गिरने पर नहीं मालूम होता उसी प्रकार जो कुटिलता कुछ कठिनाई से मिटे वह प्रत्याख्यानावरण माया है।
(११) प्रत्याख्यानावरण माया-मेढ़े के सींग का टेढ़ापन दूर करना अत्यन्त श्रमसाध्य है उसी प्रकार जो माया अत्यन्त प्रयास करने से हटे उसे अप्रत्याख्यानाचरण माया कहते हैं।
(१२) अनन्तानुबंधी माया-जैसे वांस की कटिन जड़ का टेढ़ापन दूर नहीं किया जा सकता उसी प्रकार जो कुटिलता श्राजीवन दूर न हो सके वह अनन्तानु. बंधी माया है। . . . . .
— (१३) संज्वलन लोभ-जैसे हल्दी का रंग शीन ही छूट जाता है इसी प्रकार । जो लोभ शीघ ही मिट जाय वह संज्वलन लोभ है।