________________
... कर्म निरूपल । जो श्रायु किसी भी कारण से कम नहीं होती अर्थात् पूर्व जन्म में जितने । समय की बँधी है उतने ही समय में भोगी जाती है उसे अनपवर्तनीय आयु कहते हैं। दवा, नारांकयों, चरम शरीरियों ( उसी भव से मोक्ष जाने वालो । चक्रवती, वामु देव आदि उत्तम पुरुषों और असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य-तिर्यञ्चों की श्रायु अनपवर्तनीय होती है। इनकी आयु को विष, शस्त्र अग्नि, जल ग्रादि कोई भी कारण न्यून नहीं कर सकता।
__यहां प्रारंभ करना, महा परिग्रह रखना, अत्यन्त लालसा होना, पंचेन्द्रिय जीवा का वध करना, मांस भक्षण करना आदि घोर कार्य करने से नरक अायु का बंध होता हैं। छल-कपट करना, कपट को छिपाने के लिए फिर कपट करना, असत्य भापण करके कपट करना, तोलने-नापने की वस्तुओं को कम-अधिक दना-लेना, इत्यादि कार्य करने स तियेच आयु बंधती है । निष्कपट व्यवहार करना; नम्रता का भाव रखना, अल्प प्रारंभ करना, अल्प परिग्रह रखना, ईर्श भाव न रखना, सब जीवा घर दयाभाव रखना, इत्यादि कारणों से मनुष्य प्रायु का बंध होता है। सराग संयम, श्रावक धर्म का प्राचरण, अज्ञानयुक्त तपश्चरण, विना इच्छा के बलात्कार पूर्वक भूख, प्यास, सर्दी-गर्मी प्रादि का कष्ट सहन करना, इत्यादि कारणों से देव-आयु कर्म का बंध होता है।
अन्य कर्मों से आयु कर्म के बंध में एक खास ध्यान देने योग्य विशेषता है। वह यह है कि सात कमों का प्रतिक्षण-निरन्तर बंध होता रहता है किन्तु आयु कम । झा बंध प्रतिक्षण नहीं होता। वर्तमान प्रायु के जव छह महीने शेष रहते हैं तब । देव और नारकी जीवों को नवीन श्रायु का बंध होता है। मनुष्य और तिर्यञ्च वत्तेमान प्रायु का तीसरा भाग शेष रहने पर चारों श्रायुश्री में स किसी एक का बंध करते हैं । भोगभूमि के जीव छह माह शेष रहने पर देव-श्रायु का बंध करते हैं ।
एक चार जो श्रायु वन्ध जाती है वह फिर भोगे बिना छूट नहीं सकती। किन्तु एक जीवन में प्राट अपकर्षण काल होते हैं। अर्थात् श्राउ वार ऐसा समय प्राता हैं जव तीसरा भाग शेप रहने घर आयु बंध होता है। पहली बार तीसरा भाग शेष रहने पर अगर प्रायु का बंध हो गया तो उस तीसरे भाग का तीसरा भाग अवशिष्ट रहने पर फिर उसी श्रायु का बंध होता है किन्तु परिणामों के अनुसार स्थिति कम या अधिक या ज्या की त्या हो सकती हैं। उसके बाद तीसरे भाग के तीसरे भाग का तीसरा भाग शेष रहने पर फिर इसी प्रकार प्रायु में न्यूनता-अधिकता श्रादि संभव है । इसी प्रकार श्राट त्रिभाग होते हैं।
हमारी वर्तमान श्रायु कितनी है ? उसके दो भाग कब व्यतीत होंगे और तीसरा भाग कर शेफ रहेगा? यह छदमस्थ जीव नहीं जान पाते । इसलिए उन्हें श्राच-बंध का समय भी मात नहीं हो सकता। ऐसी अवस्था में प्रत्येक का यह कर्तव्य है कि वह अपने परिणामों की शुद्धि के लिए सदा प्रयत्नशील रहे और अन्तः करण को किसी भी क्षण मलिन न होने दे । संभव है जिस क्षण हृदय में पाप.का.