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द्वितीय अध्याय तीनों वेदों की पृथक गणना करने से नौ भेद होते हैं और सामान्य रूप से वेद को एक माना जाय तो सात भेद होते हैं। दोनों प्रकार की संख्या में तात्त्विक भेद बिलकुल नहीं है, यह तो विचक्षा का साधारण भेद हैं।
केवली भगवान का, बीतराग-प्ररूपित शास्त्र का, चतुर्विध संघ का तथा देवों का अवर्णबाद करने से दर्शनमोहनीय कर्म का बंध होता है। तीव्र क्रोध, तीव्र मान, तीन माया, और तीव्र लोभ करने से चारित्र मोहनीय कर्म का बंध होता हैं । इस प्रकार मोहनीय कर्म का विवेचन यहां समाप्त होता है। मूलः-नेरइयतिरिक्खाउं, मणुस्साउं तहेव य ।
देवाउयं चउत्थं तु, अाउकम्मं चगविहं ॥ १२ ॥ छाया:-नैरयिकतिर्यगायुः, मनुष्यायुस्तथैव च ।
देवायुश्चतुर्थं तु, प्रायुः कर्म चतुर्विधम् ।। १२ ।। शव्दार्थ:-आयु कर्म चार प्रकार का है--(१) नरकायु (२) तिर्यञ्चायु (३) मनुष्यायु और (४) देवायु।।
___ भाष्यः --मोहनीय कर्म के निरूपण के पश्चात् क्रमप्राप्त आयु कर्म का विवेचन यहां किया गया है ! नियत समय तक जीव को शरीर में रोके रखने वाला कर्म आयु कर्म कहलाता है। उसकी चार उत्तर प्रकृतियां हैं-नरक आयुष्य, तिर्यञ्च-आयुष्य, मनुष्य आयुष्य और देव-श्रायुष्य । जो कर्म नारक जीवों को नारकी-शरीर में रोक रखता है-मरने की इच्छा होने पर भी नहीं मरने देतर-चह नरकायुष्य कर्म कहलाता है । इसी प्रकार जो कर्म तिर्यश्च के शरीर में जीव को बनाये रखता है वह तिर्यञ्च-श्रायु कर्म कहलाता है । मनुष्य और देव के शरीर में जीव को रोक रखने वाला मनुष्य श्रायु करें और देव श्रायु कर्म कहलाता है। श्रायु कर्म का क्षय होने पर कोई मनुष्य या देवता जीवित रहना चाहे तो भी यह जीवित नहीं रह सकता । इस प्रकार श्रायु कर्म के उदय से जीव जीता है और उसके क्षय से मर जाता है।
आयु दो प्रकार की होती है-अपवर्तनीय और अनपवर्तनीय । जो श्रायु, अग्नि, जल, विन और शस्त्र आदि से कम हो जाती है अर्थात् चिरकाल में भोगने योग्य आयु कर्म के दलिक शीघ्र भोग लिये जाते हैं, वह आशु अपवर्त्तनीय कहलाती है । इस आयु के समाप्त होने पर जो मरण होता है वह अकालमरस्य कहलाता है। अकाल-मरण कहने का तात्पर्य यही है कि जो आयु कर्म पच्चीस-पचास वर्ष में धीरे-धीरे मोगा जाना था, वह विप आदि का निमित्त पाकर एक अन्तर्मुह में ही भोग लेना पढ़ता है । जैसे डाल पर लगा हुआ फल दस-पन्द्रह दिन या एक माल में पकता है और उसी को तोड़ कर यदि अनाज शादि में दवा दिया जाय तो एकदो दिन में ही पकजाता है, उसी प्रकार वायु कर्म का भी वाहा निमित्त पाकर शीय परिपाक हो जाता है।