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कर्म निरुपण
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कर्म वह धुरी है जिसके सहारे से चक्र चलता है। यह कर्म दुहरा घातक है- :- श्रात्मा को सम्यक्त्व भी नहीं होने देता और चारित्र भी नहीं होने देता । इसके सहयोग से ज्ञान भी मिथ्याज्ञान वन जाता है । इस प्रकार मोक्ष के कारण भूत रत्नत्रय का विद्यातक मोहनीय कर्म ही हैं । यह कर्म दसवे गुणस्थान तक रहता है और ग्यारहवें गुण स्थान पर भी लाक्रमण करके जीव को नीचे गिराते- गिराते प्रथम गुणस्थान में भी लाकर पटक देता है । संसार के समस्त दुःख मोहनीय कर्म की ही बदौलन जीव को भुगतने पड़ते हैं । श्रतएव सुखाभिलाषी भव्य प्राणियों को मोहनीय कर्मके विनाश का सम्पूर्ण प्रयत्न करना चाहिए । सोहनीय कर्म का यांशिक नाश किये बिना श्रात्मा श्राध्यात्मिक प्रगति की और एक भी कदम नहीं बढ़ा सकता । क्योंकि दर्शनमोहनीय के उदद्य की अवस्था में प्रथम गुणस्थान से आगे जीव नहीं बढ़ता है ।
सोही जीव क्रोध, मान, माया, लोभ के वशीभूत होकर नाना प्रकार के दुःख उठाते हैं । उन्हें अपने स्वरूप का भी भान नहीं रहता कि वस्तुतः मैं कौन हूँ ? मेरा असली स्वभाव क्या है ? मैं नाशवान् हूँ या अविनश्वर हूँ ? मोही जीव शरीर को ही श्रात्मा समझ लेता है और फिर शरीर का पोषण करने के लिए इन्द्रियों का गुलाम चन जाता है । वह संसार के पर पदार्थों में ममत्व भाव धारण करता है । यह महल मेरा है, यह तेरा है, यह राज्य मेरा है, यह धन-धान्य मेरा है, यह दासी- दास मेरे हैं, यह सोना-चांदी मेरा है, इस प्रकार मेरे तेरे के पाश में फंसकर पागल पुरुष की तरह नाना चेष्टाएँ करता हुआ अनन्त काल संसार में व्यतीत करता है ।
. बड़े-बढ़े ज्ञानवान् पुरुष भी मोह के जाल में फँस जाते हैं । संसार में जो अनेक एकान्तवाद प्रचलित हैं, यह सब मोह की ही विडम्बना है । मोह जीव के विवेक को मिट्टी में मिला देता है। कहा भी है
पाषाणस्तरडेष्वपि रत्नबुद्धिः, कान्तेति घीः शोणितमांसपिण्डे | पञ्चात्मके वर्ष्मणि चात्मभावो, जयत्यसौ कांचनमोहलीला ॥
प्रभाव
अर्थात् मोह की लीला संसार में सर्वत्र विजयी हो रही है । उसी का यह है कि पत्थर के टुकड़ों को लोग रत्त समझते हैं ! ( रत्न वास्तव में पत्थर के ही टुकड़े हैं । उनका जो अधिक मूल्य समझा जाता है सो केवल मानव समाज की कल्पना का ही सूल्य हैं | अर्थशास्त्र की दृष्टि से उनका वास्तविक मूल्य एक रोटी के टुकड़े बराबर भी नहीं हैं ) मोह के प्रभाव से ही लोग रक्त और मांस के लोथ को ( पिंडको ) प्रिया मानते हैं और पंचभूतमय शरीर को श्रात्मा समझ बैठते हैं !!
ऐसी अवस्था में मोह को जीतने वाले महापुरुष धन्य हैं ! वे अत्यन्त सत्वशाली हैं, शूरवीर हैं । उनका अनुकरण ही कल्याण का कारण है । जिन्होंने राग-द्वेष के पाश को छेद डाला है, मोह का समूल उन्मूलन कर दिया है श्रतएव जो सम्यकूदर्शन और सम्यक्चारित्र से सुशोभित हैं वे पुण्य - पुरुष चन्दनीय हैं। उन्हें 'अर्हन् का प्रतिष्ठित पद प्राप्त होता है। सच्चे हृदय से अन् की भक्ति करने से भव्य जीव स्वयं अन् पद प्राप्त करता है | किसी लक्त ने बहुत सुन्दर कहा है
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