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द्वितीय अध्याय
[ १] इत्यादि पूर्वोत कार्य करने से दर्शनावरण का बंध होता है। इस घाति कर्म के बंध से बचने की इच्छा रखने वालों को उपर्युक्त कार्य तथा इसी प्रकार के अन्य कार्य त्याग देने चाहिए।
यहां यह शंका ही जा सकती है कि जैले मतिज्ञाभ और श्रुतज्ञान से पूर्व चक्षुदर्शन और अचतुदर्शन होता है, अवधिज्ञान से पहले अवधि-दर्शन होता है, केवल ज्ञान के पश्चात् फेव दर्शन होता है, उसी प्रकार मनः पर्याय ज्ञान से पहले मनः पर्याय दर्शन क्यों नहीं होता ? शास्त्रों में मनः पर्याय दर्शन का उल्लेख क्यों नहीं है ? इसका समाधाम य है कि मनः पर्याय ज्ञान इहा नामक मतिज्ञान पूर्वक होता है. दर्शन पूर्वक नहीं होता। इसी कारण मनः पर्याय दर्शन नहीं माना गया है। सूल:-वेपणीयं पि दुविह, सायमसायं च प्राहियं ।
सायस्स उ बहू भेया, एमेव असायस्स वि ॥ ७॥ छाया-वेदनीयमपि द्विविधं, सातमसातं चाख्यातम् ।
सातस्य तु बहवो भेदाः, एवमेवातातस्यापि ॥ ७ ॥ .. शब्दार्थ-बदनीय अर्म के दो भेद हैं-(१) साता वेदनीय और (२) असाता बेदनीय । सातावेदनीय के बहुत से भेद हैं और इसी प्रकार असातावेदनीय के भी"
भाप्य-दर्शनावरण के पश्चात् वेदनीय कर्म का मूल प्रकृतियों में निर्देश किया गया है अतः उसी क्रम से सूत्रकार वेदनीय कर्म को उत्तर प्रकृतियों का निरूपण करते हैं।
सातावदनीय और असातावेदनीय के भेद से वेदनीय प्रकृति दो प्रकार की है। जिस कर्म के उदय से कोई पदार्थ सुख कारक प्रतीत होता है वह साता वेदनीय है और जिस कर्म के उदय से कोई पदार्थ दुःख जनक अनुभव होता है उसे असाता चंदनीय कर्म कहत है । न दोनों के अनेक अनेक भेद सूत्रकार ने बतलाये है इसका कारण यह है कि बदाय के विषय अनेक हैं। जैसे-रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द । 'पांच इन्द्रियों के मन विषयों को सुख रूप समझने से सातावेदनीय के पांच भेद
हो जाते हैं। जैसे-१, रूप सांतावेदनीय, २) रस लातावेदनीय (३ गंध सातावेदनीय (४ स्पर्श सातावेदनीय और (५ शब्द सातावदनीय । तात्पर्य यह है कि जिस कर्म के उदय से मनोज स्पर्श सुखप्रद प्रतीत हो वह स्पर्श सातावेदनीय है, जिसके उदय से अनुकूल रस सुखजनक अनुभव हो वह रस-सातावेदनीय है। इसी प्रकार अन्य-लक्षण समझना चाहिए । रूप के पांव भेद, रस के पांच, गंध के दो भेद, स्पर्श के पाठ भेद है और इनके भेद से सातावेदनीय के भी उतने ही भेद हो सकते हैं।
इन्द्रियों के इन्हीं विषयों को दुःख रूप अनुभव करना असातावेदनीय है। अतएव पूर्वोक्त रीति से ही लाता के भी उत्तरोत्तर अनेक भेद किये जा सकते हैं। इन्हीं भेदों को लक्ष्य में लेकर सूत्रमार ने 'सायस्ल उ बहू भेया एमेव असायस्स वि' अर्थात्