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हितीय अध्याय
[ ८५ }. मूल:-नाणसावरणिज, सणावरणं तहा।।
वेयणि तहा मोहं, अाउकामं तहेव य॥२॥ नामकम्मं च गोयं च, अंतरायं तहेव य। एवमेयाई कम्माई, अटेव उ समासो ॥ ३ ॥ लाथा-जानल्यावरणीयं, दर्शनाचरणं तथा ।
वेदनीयं तथा मोहं, आयुः कर्म तथैव च ॥२॥ नाम कर्म च गोत्रं च. अन्तरायं तथैव च ।
एवमेतानि कर्माणि, अष्टौ तु समासतः ॥३॥ शब्दार्थः-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गौत्र और अन्तराय, ये संक्षेप से आठ ही कर्म हैं।
भाज्य:-प्रथम गाथा में क्रम से आठ कमों के कथन करने की प्रतिज्ञा की गई थी सो यहां उनके नामों का निर्देश किया गया है । आठ कर्म इस प्रकार हैं--(१) शानावरण (२) दर्शनावरण (३ ) वेदनीय (४) मोहनीय (५) आयु (६) नाम (७) गोश (C) और अन्तराय।
सूनकार ले कयों का निर्देश क्रम पूर्वक किया है। प्रश्न हो सकता है कि इनमें ल्या क्रम है ? सर्व प्रथम ज्ञानावरण को क्यों गिनाया गया है. ? लय से अन्त में अन्तराय कर्म क्यों कहा गया है ? बीच के क्रम का भी क्या कारण है ? इन प्रश्नों के समाधान के लिए कमाँ का क्रम बतलाया जाता है । वह इस प्रकार है
प्रात्मा का लक्षण उपयोग है और उपयोग ज्ञान तथा दर्शन के भेष्ठ से दो प्रकार का है। इन दोनों अदा में ज्ञानोपयोग मुख्य है, क्योंकि ज्ञान से शास्त्रों का चिन्तन किया जा सकता है, ज्ञानोपयोग के समय में ही लब्धि की प्राप्ति होती है और ज्ञानोपयोग के समय में ही मुक्ति की प्राप्ति होती है । इस प्रकार झानोपयोग की प्रधानता होने से, ज्ञान का झावरण करने वाले कर्म-शानावरण का सर्व प्रथम उल्लोश किया गया है और उसके अनन्तर दर्शन का प्रावरण करने वाले दर्शनावरण का निर्देश किया गया। सुस्त जीवों के दर्शनोपयोग की प्रवृत्ति शानोपयोग के बाद होती है, इसलिए भी दर्शनावरण का उल्लेख सानावरण के पश्चात् किया गया है। शानासाना और दर्शनावरण के तीन उदय ले दुःस्व का और इनके विशेष क्षयोपशम ले सुख का अनुभव होता है। सुख-दुःख का अनुभव कराना बेदनीय कर्ल का कार्य है अतः इन दोनों कर्मों के अनन्तर वेदनीय का उल्लेख किया गया है। सुरख-दुःख की वेदना के समय राग-द्वेष का उदय अवश्य हो जाता है और राग-द्वेष मोहनीय फर्म के कार्य है. अतएव पेदनीय से. वाद मोद य कर्म का कथन किया गया है। मोस से ग्रस्त हुआ जीव भारंभ आदि करके श्रायु का बंध करता है और थायु का संध होना श्रायु कर्म का कार्य है, इसलिए मोह य के पश्चात् आयु फर्म का प्रदरा