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कर्भ निरूपण कारण हैं।
(२) कर्म पुद्गल रूप हैं, क्योंकि पुद्गल द्रव्य के सम्बन्ध से ही वे अपना फल देते हैं । जैसे पुद्गल रूप धान्य का परिपाक गर्मी श्रादि पुद्गल के निमित्त से होता है उसी प्रकार कर्मों का परिपाक (विपाक-फल ) भी पुद्गल के ही निमित्त से होता है, . इसलिए कर्मों को भी पुद्गल रूप ही स्वीकार करना चाहिए।
शंका-ज्ञानावरण श्रादि जीव विपाकी कर्म प्रकृतिया पुद्गल के निमित्त से फल नहीं देती, अतएव यह कहना ठीक नहीं कि कर्म पुद्गल के निमित्त से ही फल देते हैं। जीव विपाकी प्रकृतियों का फल जीव में ही होता है।
समाधान-जीव विपाकी कर्म, संसारी-सकर्म-जीव के सम्बन्ध से ही फले देते हैं, इसलिए उन कर्मों में भी परम्परा से पुद्गल कर्म का सम्बन्ध रहता ही है। अतएव यह असंदिग्ध है कि कर्मों का फल पुगल के सम्बन्ध से ही होता है इसलिए कर्म पुदल रूप ही होना चाहिए । यही नहीं, कर्म का बंध भी साक्षात् या परम्परा से पुद्गल के निमित्त से ही होता है, इसलिए भी कर्म पौगलिक हैं। .
कर्म पौगालिक होने पर भी वह आत्मा के ऊपर अपना प्रभाव डालता है। जैसे पौगालिक मदिरा, अमूर्तिक चेतना-शाक्ति में विकार उत्पन्न कर देती है उसी . प्रकार कर्म भी अमूर्त श्रात्मा पर अपना प्रभाव ,बालते है । कर्मों की यह परम्परा अनादिकाल से चल रही है। कर्म व्यक्ति की अपक्षा सादि हैं किन्तु प्रवाह की अपेक्षा अनादि हैं। सोते-जागते समय हम जो क्रियाएँ करते हैं, और हमारे मन का जैसा शुभ या अशुभ व्यापार होता है उसी के अनुसार प्रतिक्षण कर्म-बंध होता रहता है। इल समय किया हुआ कर्म-बंध भविष्य में उदय श्राता है और उसके उदय का निमित्त पाकर फिर नवीन कर्मों का बंध हो जाता है । इस प्रकार कर्म का यह अनादिकालीन प्रवाह बराबर बहता जा रहा है । जब संवर के द्वारा नवीन कर्मों का श्रागमन रुक जाता है और निर्जरा के द्वारा पूर्व-संचित कर्म खिर जाते हैं तप आत्मा अपने शुद्ध चिदानन्द रूप में सुशोभित होने लगता है । किन्तु जबतक नवीन कर्मों का आना और बंधना नहीं रुकता तब तक श्रात्मा अपने कर्मों के अनुसार संसार में अर्थात चार गतियों में अनेकानेक योनियाँ धारण करता हुश्रा, विविध प्रकार की यातनाएँ भोगता रहता है । अतः दुःस्त्रों से छुटकारा पाने का उपाय महर्षियों ने संवर
और निर्जरा रूप प्रतिपादन किया है। प्रत्येक प्रात्म-कल्याण की कामना करने वाले मम जीव का यह प्रधान कर्तव्य है कि नर भव और सद्धर्म का संयोग पाकर वह ऐसा प्रयत्न करे कि जिससे भव-भव में न भटकना पड़े और जरा-मरण-जन्म श्रादि की घोर व्यथाओं से शीघ्र छुटकारा मिल जाए । इसलिए कर्म-बंध और संवर आदि के स्वरूप को तथा कारणों को सम्यक् प्रकार से समझना चाहिए । तथा हेय का त्याग और उपादेय का ग्रहण करना चाहिए ।