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द्वितीय अध्याय
[ ८३ ] आत्मा उस विकृति से मुक्त होकर कभी शुद्ध स्वरूप को नहीं पा सकता क्याकि 'अदृष्ट' गुण श्रात्मा का है अतएव वह सदैव आत्मा में विद्यमान रहेगा। बौद्धों की 'वासना' सर्वथा क्षणिक है । क्षणिक होने के कारण वह उत्पन्न होते ही समूल नष्ट हो जाती है । ऐसी अवस्था में वह जन्मान्तर में फल प्रदान नहीं कर सकती । यदि यह कहा जाय कि प्रत्येक कार्य का फल इसी जन्म में भोग लिया जाता है सो ठीक नहीं है। हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि दया, दान, स्वाध्याय, तपस्या श्रादि धार्मिक आचरण करने वाले अनेक पुरुष इस जन्म में दीन, दुःखी और दरिद्र होते हैं तथा हिंसा आदि पापों का आचरण करने वाले अनेक पुरुष इस जन्म में सुखी देखे जाते हैं। यदि इस जन्म के कृत्यों का फल इसी जन्म में माना जाय तो दया, दान, तपस्यां आदि का धर्म कृत्यों का फल दीनता, दुःख और दरिद्रता मानना पड़ेगा और हिंसा आदि पाप कर्म का फल सुख मानना पड़ेगा। परन्तु यह संभव नहीं है । ऐसी अवस्था में यही मानना आवश्यक है कि इस जन्म में पापाचार करने वाला व्यक्ति यदि सुखी है तो वह उसके पूर्व जन्म के धर्माचार का ही फल है। इस जन्म में किये जाने वाले पापाचार का फल उसे भविष्य में अवश्य भोगना पड़ेगा। इसके विपरीत धर्माचरण करने वाला व्यक्ति यदि इस जन्म में दुःखी है तो वह उस पूर्व जन्म पापाचार का परिणाम समझना चाहिए । वर्तमान जन्म में किये जाने वाले धर्माचार का फल उसे आगे अवश्य ही प्राप्त होगा। शास्त्र में कहा है-'कडाण कम्माण ण मोक्ख अत्थिं' अर्थात् किये हुए कर्म विना भोगे नहीं छूटते हैं।
. इस प्रकार जब यह निश्चित है कि पूर्व जन्म के शुभ या अशुभ अनुष्ठान का फल इस जन्म में और इस जन्म के अनुष्ठान का फल अागामी जन्म में भी भोगा जाता है, तब फल भोग में कारणभूत शक्ति भी जन्मान्तर में विद्यमान रहने वाली होनी चाहिए । इस युक्ति से क्षण भर रहने वाली वासना फल नहीं दे सकती।
__ इससे यह सिद्ध होता है कि श्रात्मा को अपने मूल स्वभाव में न होने देने वाली जो शक्ति है, वह सदभाव रूप है, आत्मा से भिन्न पौद्गलिक है और स्थायी है। इसी शुक्ति को और शक्ति के प्राधार भूत द्रव्य को कर्म कहते हैं।
शंका-कर्म पौद्गलिक है, इसमें क्या प्रमाण है ?
उत्तर-कर्म को अात्मिक शङ्गित मानने में जो बाधा उपस्थित होती है उसका उल्लेख किया जा चुका है। जब वह चेतन की शक्ति नहीं है फिर भी है तब जड़ की शक्ति होना ही चाहिए । इसके अतिरिक्त निम्न लिखित उक्लियों से भी कर्म पोद्गलिक सिद्ध होता है:- . . - . . (१) कर्म पौगलिक है, क्योंकि वह श्रात्मा की पराधीनता का कारण है । श्रात्मा की पराधीनता के जितने भी कारण होते हैं वे सब पौगलिक ही होते हैं, जैसे चेड़ी वगैरह । यदि यह कहा जाय कि अघातिया कर्म आत्मा की पराधीनता के कारण नहीं हैं, तो उन्हें क्यों पौद्गलिक मानते हो? यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि अधातिया कर्म भी जीव की सिद्ध पर्याय में बाधक है, अतएव वे भी पराधीनता के