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प्रथम अध्याय
[ ५५ ] द्रव्य का विवेचन इसी अध्ययन में आगे किया जायगा। मूल:-गई लक्खणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्षणो।
भायणं सव्वदव्वाणं नहं श्रोगाह लक्खणं ॥१५॥ छाया-गति लक्षणस्तु धर्मः, अधर्मः स्थानलक्षणः।
. भाजनं सर्वद्रव्याणां, नभोऽवगाहलक्षणम् ॥ १५॥ शब्दार्थ-गति में सहायक होना धर्म द्रव्य का लक्षण है, स्थिति में सहायक होना अधर्म द्रव्य का लक्षण है, अवगाहना देना आकाश द्रव्य का लक्षण है । आकाश समस्त द्रव्यों का आधार है ॥१५॥
भाष्य-द्रव्यों की संख्या निर्धारित करने के पश्चात् उनके स्वरूप का निरूपण करने के लिए सूत्रकार ने यह कथन किया है । द्रव्यों के स्वरूप का निरूपण प्रायः श्रा चुका है, अतएव यहां पुनरुक्ति नहीं की जाती ।।
. प्रत्येक कार्य के लिए उपादान और निमित्त-दोनों कारणों का सद्भाव मानना श्रावश्यक है । जीव और पुद्गल की गति रूप कार्य के लिए भी उक्त दोनों कारण होने चाहिए । जीव की गति में जीव उपादान कारण है और पुद्गल की गति में पुद्: गल स्वयं उपादान कारण है । निमित्त कारण उपादान कारण से भिन्न ही होता है, अतएव इन की गति में जो निमित्त कारण है वही धर्मास्तिकाय है। इस प्रकार धर्मास्तिकाय की सिद्धि होती है।
शंका-गति का निमित्त कारण मानना तो श्रावश्यक है किन्तु धर्म को ही क्यों माना जाय? आकाश को निमित्त कारण मानने से काम चल सकता है तो फिर एक पृथक् द्रव्य की कल्पना करने से क्या लाभ ?
___ समाधान-धर्मास्तिकाय का कार्य श्राकाश से नहीं चल सकता। क्योंकि श्राकाश अनन्त और प्रखंड द्रव्य होने के कारण जीव और पुदगल को, अपने में सर्वत्र गति करने से नहीं रोक सकता। ऐसी स्थिति में अनन्त पुद्गले और अनन्त जीव, अनन्त परिमाण वाले प्रकाश में बिना रूकावट के संचार करेंगे। और वे इतने पृथक्-पृथक् हो जाएंगे कि उनका पुनः मिलना और नियंत सृष्टि के रूप में दिखाई देना प्रायः अशक्य हो जायगा। इस कारण जीव और पुद्गल की गति को नियन्त्रित करने के लिए धर्मास्तिकाय नामक पृथक् द्रव्य को स्वीकार करना आवश्यक है।
इसी युक्ति से जीव और पुद्गल की स्थिति की मर्यादा बनाये रखने के लिए अधर्मास्तिकाय को स्वीकार करना चाहिए।
धर्मास्तिकाय के द्वारा जीवों का गमन-श्रागमन, भाषा, उन्मेष, मनोयोग, चचनयोग और काययोग प्रवृत्त होता है तथा इनके अतिरिक्त अन्य भी जो गमन शीला भीव हैं वे भी धमोस्तिकाय से प्रवृत्त हो रहे हैं। अंधर्मास्तिकाय से जीवों का खड़ा