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प्रथम अध्याय
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वस्तु दोनों रूप है | किन्तु जब एक दृष्टि, दूसरी दृष्टि का विरोध करके उसे मिथ्या मानकर अपने ही विषय को सम्यक् प्रतिपादन करती है तब वह दृष्टि सम्पूर्ण. वस्तुतत्त्व को सम्पूर्ण प्रतिपादन करके मिथ्या बन जाती है । सम्पूर्ण वस्तु तच्च का अवलोकन करने के लिए सापेक्ष दृष्टि होनी चाहिए । सापेक्ष दृष्टि का तात्पर्य यह है कि एक दृष्टि से विरोधी प्रतीत होने वाली दूसरों दृष्टि के लिए उसमें गुंजाइश रहनी चाहिए । अर्थात् पर्याय-दृष्टि में द्रव्य-दृष्टि को भी अवकाश होना चाहिए और द्रव्य-दृष्टि में पर्याय - अवकाश होना चाहिए। इसीको सापेक्षवाद, सापेक्ष दृष्टि या नयवाद कहते हैं । वस्तु के अनन्त धर्मों के संबंध में अनन्त दृष्टियाँ हो सकती हैं, अतः जय के भेद भी अनन्त हैं । श्रागम में कहा है
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जावइया चयणपहा तावइया चेव हुंति नयवाया ||
अर्थात् वचन के जितने प्रकार हो सकते हैं, उतने ही प्रकार के नय भी हैं किन्तु संक्षेप में नय के दो भेद किये गये हैं- ( १ ) द्रव्यार्थिक नय और (२) पर्यायर्थिक नय । जो नय मुख्य रूप से द्रव्य को विषय करता है उसे द्रव्यार्थिक नय कहते . हैं और जो पर्याय को मुख्य रूप से अपना विषय बनाता है वह पर्यायार्थिक नय कहलाता है ।
यहाँ यह न भूल जाना चाहिए कि द्रव्यार्थिक नय का मुख्य विषय यद्यपि द्रव्यही हैं, अर्थात् वह प्रत्येक वस्तु को द्रव्य के रूप में ही देखता है किन्तु वह पर्याय का निषेध नहीं करता वह पर्यायों को सिर्फ गोण करता है । इसी प्रकार पर्याय नय. वस्तु तत्त्वको पर्याय के रूप में ही देखता है, फिर भी वह द्रव्य का निषेध नहीं करता । जो नय अपने विषय की ग्राहक होकर भी दूसरे नय का निषेधक न हो वही नय कहलाता है और जो दूसरे नय का निषेध करके प्रवृत्त होता है वह दुर्नय कहलाता है । कहा भी है
अर्धस्यानेकरूपरूप धीः प्रमाणं तदंशधीः । नयो धर्मान्तरापेक्षी, दुर्नयस्तन्निराकृतिः ॥
अर्थात् अनेक धर्म रूप पदार्थ को विषय करने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है, और उस पदार्थ के एक अंश ( धर्म ) को नय विषय करता है । नय दूसरे धर्म की अपेक्षा रखता है और दुर्नय दूसरे धर्म का निराकरण करता है ।
शंका- जैसे द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्यार्थिक नय और पर्याय को विषय करने वाला पर्यायार्थिक नय आपने कहा, उसी प्रकार गुण को विषय करने वाला र्थिक नय भी कहना चाहिए । वह क्यों नहीं बतलाया ?
समाधान- गुण का पर्याय में ही अन्तर्भाव होता है । पर्याय दो प्रकार की होती है - सहभावी पर्याय और क्रमभावी पर्याय । सहभावी पर्याय को गुण कहा जाता है और भावी पर्याय को पर्याय कहा है । यहाँ पर्यायार्थिक में जो पर्याय शब्द है वह व्यापक है- दोनों का वाचक है । अतएव गुणार्थिकनय पृथक् नहीं बतलाया गया
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