________________
प्रथम, अध्याय
[ ६६ ]
पर्याय है । वर्ण, रस, गंध में से एक एक और दो स्पर्श ये पांच गुण पुद्गल के स्वभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं । पुद्धल की द्वयक आदि पर्यायै विभाव द्रव्य व्यंजन पर्याय है और एक रस से रसान्तर होना, गंध से गन्धान्तर होना आदि विभाव गुण व्यंजन पर्याय हैं।
यह स्मरण रखना चाहिये कि धर्म, अधर्म, आकाश और काल, इन चार द्रव्यों गुण पर्याय या अर्थ पर्याय ही होती हैं, क्योंकि इनके प्रदेशवत्व गुण में विकार नहीं होता अर्थात् इनका आकार बदलता नहीं है, जैसा कि जीव और पुल का विकृत अवस्था में बदलता रहता है । इन चारों द्रव्यों का आकार सदैव समान रहता है ।
पर्यायें दूसरी तरह से चार प्रकार की होती हैं:
( १ ) अनादि अनंत - जैसे धर्म, अधर्म, द्रव्यों का लोकाकाश प्रमाण आकार होना, सुमेरु, नरक और स्वर्ग की रचना श्रादि ।
( २ ) सादि अनन्त पर्याय - जैसे सिद्ध पर्याय !
( ३ ) अनादि सान्त पर्याय - अव्यजीव की संसारी पर्याय ।
४ ) सादि सान्त पर्याय - जैसे पुद्गल स्कंधों का संयोग - विभाग होना ।
सूत्रकार ने शुरु को सिर्फ द्रव्य में आश्रित होने का विधान किया है । गुण, पर्याय की तरह उसमाश्रित नहीं है । इसका कारण यह है कि गुण नित्य होते हैं और पर्याय नित्य होती है । ऐसी अवस्था में अनित्य का गुण नित्य कैसे हो सकता है ? अतः गुण, पर्याय में नहीं रहता बल्कि पर्याय गुणों में रहती है । द्रव्य के क्रमभावी धर्म को पयार्य कहते हैं और सहभावी धर्म को गुण कहते हैं । गुण, द्रव्य की समस्त पर्यायों में व्याप्त रहता है, अर्थात् द्रव्य चाहे जिस पर्याय में हो पर गुण उस द्रव्य में अवश्य रहेगा। गुण द्रव्य की ही भांति नित्य है । जैसे जीव का कभी विनाश नहीं होता उसी प्रकार उसके ज्ञान और दर्शन गुण का भी कभी नाश नहीं हो सकता । जीव जब निगोद में- श्रत्यन्त निकृष्ट अवस्था में रहता है तब भी उसका ज्ञान गुण विद्यमान रहता है । पर्यायें उत्पन्न और विनष्ट होती रहती हैं । यही पर्याय और गुण अन्तर है।
यो तो गुणों की संख्या अनन्त है, फिर भी उन्हें मुख्य रूप से दो विभागों में विभक्त किया गया है- (१) सामान्य गुण और (२) विशेष गुण । समस्तं द्रव्यों में समान रूप से पाये जाने वाले गुण सामान्य गुण कहलाते हैं और जो लब द्रव्यों में न होकर सिर्फ एक द्रव्य में हों उन्हें विशेष गुण कहते हैं । सामान्य गुण भी यद्यपि अनन्त हैं, तथापि उनमें से मुख्य-मुख्य इस प्रकार हैं:
( १ ) अस्तित्व - जिस गुण के कारण द्रव्य का कभी विनाश न हो ।
( २ ) वस्तुत्व -- जिस गुण के कारण द्रव्य कोई न कोई अर्थ क्रिया अवश्य करे । (३) प्रपत्व - जिल गुण के कारण द्रव्य किसी ज्ञान द्वारा जाना जा सके । ( ४ ) गुरुलघुत्व - जिस गुण के कारण द्रव्य का कोई आकार बना रहे, द्रव्य के अनंत गुण विखर कर अलग-अलग न हो जाएँ ।